खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए !
मैं किस चीज़ से भाग रहा हूँ ?
संभावना
संभावना थी उसकी कुछ और होने की
वह मगर कुछ और ही हुए जा रहा है
आरज़ू थी उसकी कुछ और ही जीने की
वह मगर कुछ और ही जिए जा रहा है
# एक गुलाब की कली जिसकी संभावना गुलाब होने की थी पर उसकी तमन्ना कि वह कमल हो जाए। कमल तो वो हो न सकी क्योंकि कमल वो हो सकती न थी, गुलाब भी न हो पाई।
गीता
सारी दुविधा, द्वंद्व, विषाद, संशय और प्रश्न अर्जुन के मन में है। दुर्योधन के मन में कोई दुविधा नहीं, कोई संशय नहीं। कृष्ण को भी कोई दुविधा नहीं है। अर्जुन की दशा हमारी दशा है। वह दुर्योधन की अवस्था को पार कर चुका है लेकिन अभी कृष्ण नहीं हुआ है। मनुष्य एक यात्रा पर है। यह दरअसल चेतना की यात्रा है। पशु से परमात्मा तक की यात्रा में मनुष्य एक पड़ाव है। मनुष्य यानि मन और मन यानि द्वंद्व, मन यानि संशय। अर्जुन हमारा प्रतिनिधि है। वह दुर्योधन की अवस्था को पार कर चुका है लेकिन विषाद से भरा हुआ है। गीता उसकी यात्रा है जिसमें कृष्ण उसके सारथि और मार्गदर्शक बनकर उसके साथ चल रहे हैं। कृष्ण एक ऊंचाई पर हैं जहाँ से वो अपनी बातें कर रहे हैं। उनका तल आत्मा का तल है। अर्जुन का तल शरीर का तल है, मन का तल है। अर्जुन को इस तल से उस शिखर तक की यात्रा करनी है जहाँ कृष्ण खड़े हैं। गीता एक यात्रा-गीत है। एक ऐसी यात्रा जो विषाद से शुरू होती है और मोक्ष पर समाप्त होती है। विषाद प्रथम अध्याय है। मोक्ष अंतिम अध्याय है। उसके आगे कुछ नहीं है। मोक्ष अर्जुन के तल का मिट जाना है।
कुछ लोग कहते हैं कि गीता के केंद्र में कर्म है। उनका मानना है कि कृष्ण सिर्फ कर्म की बात करते हैं और सिर्फ यही एक मार्ग है। कुछ लोग भक्ति, ध्यान और ज्ञान को भी अलग मार्ग मानते हैं जो अपने आप में पर्याप्त हैं। और कुछ सब के समन्वयय को ही सही मार्ग बताते हैं। मुझे लगता है कि गीता का ध्यान चित्त की अवस्था पर है और इसकी प्रमुख शिक्षा चित्त को शांत करने की है। गीता के अनुसार जीवन का उद्देश्य अपने अंतिम और सर्वोपरि सत्य को जानना है और शांत चित्त उसकी प्रथम आवश्यकता है।
कृष्ण कहते हैं कि उन्होंने हमेशा से दो मार्गों की बात की है - जिनका चित्त शुद्ध और मन शांत हो चुका है उनके लिए सांख्य योग और बाकियों के लिए कर्म योग। सांख्य योगियों के लिए कर्म की अनिवार्यता नहीं है, लेकिन वो स्वेच्छा से कर्म कर सकते हैं। कर्म योगियों के लिए कर्म अनिवार्य है, तब तक जब तक कि उनका चित्त शांत नहीं हो जाता है।
अर्जुन का ह्रदय विषाद, संशय और मोह से भरा हुआ है। उसके निर्णय करने की क्षमता और सही-गलत में चयन करने की शक्ति क्षीण हो गई है। चित्त अशांत और व्याकुल हो पड़ा है। कर्म करने वाले हाथ काँप रहे हैं। ऐसी दिशाहीन और दयनीय स्थिति में कृष्ण की बातें उसे रास्ता दिखाती हैं और कर्त्तव्य की दिशा में अभिमुख करती हैं। अर्जुन के रगों में बल का संचार होता है, चित्त शांत हो जाता हैऔर वह बिना किसी दुविधा के यथोचित कर्म करने को प्रेरित होता है। इस प्रकार गीता कर्म करने की प्रेरणा देती है।
कर्म करते-करते इंसान शांत हो सकता है और वह वो पा सकता है जो पाने योग्य है। कर्म की पराकाष्ठा कर्त्ता के खोने में है। कर्त्ता धीरे-धीरे खो जाता है और वह अकर्त्ता में स्थापित हो जाता है। लेकिन इसकी एक शर्त है और वो शर्त ये है कि कर्म बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी लालसा के हो। और कर्म करते हुए चित्त में हर समय परमात्मा का ध्यान होना चाहिए। ऐसा चित्त धीरे-धीरे शुद्ध, शांत और स्थिर होने लगता है। कृष्ण इसे निष्काम कर्म कहते हैं जिसमें कर्म के फल की आकांक्षा नहीं हो।
गीता स्वधर्म की भी बात करती है और कहती है कि कर्म स्वधर्म के अनुरूप हो। स्वधर्म यानि मनुष्य की प्रकृति या उसका अपना स्वभाव या गुण-धर्म। स्वधर्म एक तरह से व्यक्ति का टाईप है। ये प्रकृति के तीन मूल गुणों के अनुपात से निर्धारित होता है। अलग-अलग व्यक्तियों का टाईप अलग-अलग हो सकता है। जैसे रजस के प्रभाव से अर्जुन का स्वधर्म या टाईप क्षत्रिय है। मूलतः चार टाईप बताये गए हैं - ब्राह्मण (सत्व की प्रधानता), क्षत्रिय (रजस की प्रधानता), वैश्य (रजस + तमस) और शूद्र (तमस की प्रधानता)। इसे वर्ण के नाम से जाना गया है लेकिन इसका मनुष्य के जन्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सिर्फ उसके गुण-धर्मों के अनुसार ही तय किया जा सकता है। गीता कहती है कि अपना टाईप समझ कर हमें अपने कर्मों का यथासंभव विचारपूर्वक चयन करना चाहिए। ऐसा करने से कर्म ही उसका फल हो जाता है और फल की चिंता स्वयं गिर जाती है और अतः कर्म करते हुए उसका मन व्याकुल नहीं होता है।
गीता नियत कर्म की भी बात करती है। जीवन की परिस्थितियाँ हमें जिस जगह खड़ा करती हैं, वहाँ हमारे सम्मुख जो कर्त्तव्य हैं, वही हमारा नियत कर्म है और उसे करना हमारा धर्म हो जाता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि ये उसका नियत कर्म भी है और स्वधर्म भी।
कर्म के साथ-साथ कर्त्ता के चित्त की स्थिति कैसी है, ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है। कर्म के फल की चिंता से या स्वार्थ के लिए किया जाने वाला कर्म मन को अशांत करता है क्योंकि मन सदा परिणाम के बारे में सोचता रहता है। बिना किसी निजी स्वार्थ के तहत किया जाने वाला और दूसरों के लिए किया जाने वाला कर्म मन को शांत और शुद्ध भी करता है।
कर्म करते-करते मनुष्य को धीरे-धीरे अंतर्मुखी होने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके लिए कृष्ण अभ्यास योग की बात करते हैं जिसमें अभ्यास के द्वारा मन को शांत किया जा सकता है। ये वही योग है जिसकी बात महर्षि पतंजलि अपने योग सूत्रों में करते हैं। अभ्यास से धीरे-धीरे मन की वृत्तियाँ शांत होने लगती हैं और सुषुम्णा से प्राण शक्ति प्रवाहित होने लगती है और योगी आनंद का अनुभव करने लगता है। वह धीरे-धीरे चेतना के ऊँचे स्तरों को छूने लगता है और पूर्ण परमानंद में स्थापित हो जाता है। योगी का अहंकार समाप्त हो जाता है, वह शुन्य हो जाता है और निर्विकार-निर्विचार की अवस्था में स्थित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन, तुम योगी बनो।
गीता के अनुसार कृष्ण को भक्त भी प्रिय हैं। अच्छे भक्त की उन्होंने तीन विषेशताएँ बतलाई हैं - अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण, हर परिस्थिति में शांत मन और सबके कल्याण के बारे में सोचने वाला ह्रदय। भक्ति के लिए आवश्यक शर्त समर्पण की है। भक्त स्वयं को खुद से बड़ी एक सत्ता के सामने समर्पण कर देता है। फिर भक्त अपने इष्ट में विलीन हो जाता है। उसकी इष्ट से पृथक सत्ता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार टूट जाता है।
गीता को सही मायने में समझें तो हम पाएंगे कि कर्म, अभ्यास और भक्ति का सच्चा समन्वय ही जीवन का सही तरीका है। मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष है जो उसे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर दे। यह एक लम्बी यात्रा है। कर्म, अभ्यास और भक्ति के रास्ते से चलते हुए चित्त की शुद्धि होती है, मन शांत होता है, मनुष्य अंतर्मुखी होने लगता है, मौन एवं एकांत भाने लगता है, तटस्थ होने लगता है, जीवन के सुख-दुःख से ज्यादा प्रभावित नहीं होता है, स्वीकार भाव आने लगता है, पाने की लालसा समाप्त हो जाती है, वैराग्य आने लगता है और संसार की व्यर्थता का बोध सघन होने लगता है। अपनी आत्मा में स्थित होकर उसे आनंद की अनुभूति होती है और मन की सारी आकांक्षाएँ बिना किसी प्रयास से स्वतः गिर जाती हैं। वह न सुख से उत्साहित होता है और न दुःख से ही विचलित। उसकी प्रज्ञा स्थित और स्थिर हो जाती है और वह स्थितप्रज्ञ की अवस्था को प्राप्त होता है। ठीक यही अवस्था एक भक्त, एक योगी या एक ज्ञानी की भी होती है।
कर्म मनुष्य को अकर्त्ता में ले जाता है। योग का अभ्यास भी कर्म है जो धीरे-धीरे योगी को केवल्य में ले जाता है जब वह स्वयं खो जाता है और सिर्फ पुरष ही शेष रहता है। भक्ति भी कर्म से शुरू होती है। भक्त पहले इष्ट सगुण की पूजा, आराधना, भक्ति करता है और जैसे-जैसे उसके चित्त की शुद्धि होने लगती है और उसका व्याकुल मन ठहरने लगता है, वह निर्गुण भक्ति की ओर जाने लगता है और अंततः स्वयं को पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन कर देता है। ये द्वैत से अद्वैत की यात्रा है।
कर्म और अभ्यास से जैसे मन शांत होने लगता है, मनुष्य की चेतना सूक्ष्मतर होती जाती है और उसे एक अदृश्य शक्ति का अनुभव होने लगता है। शांत हुआ मन धीरे-धीरे ध्यान में गहरा डूबने लगता है। साथ-ही-साथ शरीर की नेति घटने लगती है। विवेक की सहायता से वह समझने लगता है कि वह शरीर नहीं है, वह मन भी नहीं है, बल्कि इनका साक्षी है। फिर वो कर्म होते हुए देखता है। उसे आभास होने लगता है कि वह कर्म नहीं कर रहा है, उसके द्वारा या उसके शरीर के द्वारा कर्म हो रहा है। वह अकर्त्ता हो जाता है। वह निमित्त हो जाता है। वह वेदांत का अध्ययन करने लगता है जो उसकी स्वयं की अनुभूतियों से मेल खाती हैं और ये प्रमाण देती हैं कि उसकी यात्रा सही जा रही है। यह एक तरह से ज्ञान का मार्ग है जो धीरे-धीरे उसे अद्वैत की ओर ले जाती है।
किसी भी मार्ग से यात्रा की जाए, मंज़िल एक ही मिलती है। ये मंज़िल है स्वयं को खोने की, अपने सत्य रूप के साक्षात्कार की। मैं, मन, आदि-आदि सब आत्म-अनुभव की आग में धू-धू हो जाते हैं। अर्जुन खत्म हो जाता है और उसके अंतर्मन में जो अंतर्यामी कृष्ण हैं, वही बिना किसी अवरोध के प्रकाशित होने लगते हैं। इसी की ओर इशारा करते हुए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि तुम सब कुछ छोड़ कर मेरे पास आ जाओ। इसका अर्थ यह है कि अर्जुन जो इतना प्रयास कर रहा है, भटक रहा है, अपना मन कहाँ-कहाँ फँसाये हुए है, क्या-क्या हासिल नहीं करना चाहता है, वह सब करना छोड़ दे। और अपने रथ की बागडोर पूरी तरह से अंतर्यामी, जो स्वयं परमात्मा का अंश है, उसकी हाथों में सौंप दे। यही समर्पण मोक्ष है, यही सन्यास है।
कृष्ण यहाँ मित्र हैं, सारथि हैं, गुरु हैं और परमात्मा भी हैं। कृष्ण परमात्मा हो चुके हैं जो हर मनुष्य की चेतना की अंतिम सम्भावना है। यही चेतना जो कृष्ण की चेतना है, हमारे ह्रदय के अंतरतम गहराईयों में अंतर्यामी बनकर प्रकाशित होती रहती है। इस तरह से गीता अपने घर वापसी की यात्रा है।
याद आती है
छूट गया जो हमसे मुझे उस डगर की याद आती है
मुकम्मल हो सकता था जो उस सफर की याद आती है
उस शामो-सहर की, उस बामो-दर की याद आती है
घर से जाने के बाद मुझे अपने घर की याद आती है
ख्वाब देखा था जिसका उस मंजर की याद आती है
मुकम्मल हो सकता था जो उस सफर की याद आती है
कबीर
प्रेम गली अति साँकरी, जा में दुई ना समाय
जब "मैं" था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाय
कबीर को समझा नहीं जा सकता है, हाँ कबीर हुआ जा सकता है। बिना कबीर हुए कबीर को जान नहीं सकते।
मैं नहीं होता
प्रकृति का सौंदर्य
हरे भरे पर्वत
वादियों में उतरे बादल
धीमी-धीमी बहती नदी
और एकांत
शांत चित्त और मौन
ये सब होते हैं
मैं नहीं होता
विस्तृत फैला आकाश
क्षितिज पर उगता सूरज
बाहें फैलाये हुआ समन्दर
उठती गिरती लहरें
और एकांत
शांत चित्त और मौन
ये सब होते हैं
मैं नहीं होता
साधो सहज समाधि भली
साधो सहज समाधि भली
साधो सहज समाधि भली
जंतर-मंतर तू तो करदा
मस्जद-मंदर तू तो फिरदा
हलचल इतनी फिर क्यों अंदर
चल दे अब तू होश गली
साधो सहज समाधि भली
साधो सहज समाधि भली
पूजा-सज्दा तू तो करदा
काशी-क़ाबा तू तो फिरदा
मन में दुःख इतना क्यों फिर
चल दे अब तू प्रेम गली
साधो सहज समाधि भली
साधो सहज समाधि भली
बाहर-बाहर मारा फिरदा
सद्गुरु की तू एक न सुनदा
बाहर की माया अब तज तू
चल दे अब अंदर की गली
चल दे अपने घर की गली
साधो सहज समाधि भली
साधो सहज समाधि भली
आइडेंटिटी क्राइसिस - बुल्ला कि जाना मैं कौन !
मैं नहीं हूँ, सत् चित् आनन्द है, और सर्वत्र है।
इससे बड़ी कोई डिस्कवरी हो नहीं सकती। आग, बिजली, ग्रैविटेशन, रिलेटिविटी से बड़ी। सबसे बड़ी। और इसके लिए न कोई लैब चाहिए और न कोई टेस्ट-ट्यूब।
डुआलिटी के दो प्रश्नों से आगे निकलने के बाद इस बात की अनुभूति होने लगती है। पहला प्रश्न तो ये होता है कि मैं ये माइंड-बॉडी या कंडिशन्ड पर्सनालिटी हूँ या फिर कोई और, जैसे कि आत्मा या कॉन्सियसनेस । दूसरा प्रश्न ये कि मैं जो भी हूँ वो दूसरों से और संसार से कैसे कनेक्टेड है, यानी कि यह एक है या अनेक ?
आइडेंटिटी क्राइसिस, मतलब मैं कौन हूँ, कोई आज की नहीं, बल्कि एक बहुत पुरानी बीमारी है। तभी हमारे दर्शन और ग्रन्थ इसी से डील करते हैं। वेदांत या उपनिषदों के ज्ञान की योग-तंत्र के विज्ञान की सहायता से अनुभूति की जा सकती है। योग के निरंतर अभ्यास से जब मन शांत होने लगता है तो धीरे-धीरे अपने स्वरुप का आभास होने लगता है।
योग
यम-नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब चित्त की वृत्तियाँ शांत होने लगती हैं तो चित्त अपने स्वरुप में स्थित होने लगता है और फिर वहीं स्थिर होकर सुखी रहता है।
उपनिषद्
तभी तो हमारे ऋषियों ने एक उपनिषद् का नाम ही केन-उपनिषद् रख दिया था जिसने ये प्रश्न रखा कि केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर मनो मतम
फिर शंकर ने कहा चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम। ईशोपनिषद ने कहा पूर्णम अदः पूर्णम इदं, और ईशावास्यम इदं सर्वं। फिर योग ने इस कैवल्य तक पहुँचने का रास्ता बताया।
रावण यानि "करना", राम यानि बस "होना"
रावण यानि "करना", राम यानि बस "होना"
मन से रावण जो निकाले राम उसके मन में है। रावण यानि "करना" यानि सारी व्यर्थ की भाग-दौड़ और क़वायद, अतीत की निराशाएँ और भविष्य की चिंताएं। राम यानि बस "होना" यानि शान्त और मौन होकर पूर्ण सहजता से अपने में अभी और यहीं में स्थित हो जाना।
करना जैसे क़ैदे-ज़ीस्त कोई, होना सारे ग़म से नजात जैसे। करना जैसे सीने में आग, सर पे जुनूँ, बेताबी, बेचैनी, छटपटाहट, जुस्तुजू। होना लेकिन जैसे इन सब का न होना, जैसे चांदनी रात, उस रात का सुकूँ, घास में ठहरी शबनम की बूँद।
रावण यानि दौड़ता-भागता मन यानि "मैं"। मैं का मरना यानि राम। इसी मरने के बारे में गोरखनाथ जी ने कहा "मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा" और कबीरदास जी ने कहा "जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनन्द, कब मरिहुँ कब भेटिहुँ पूरण परमानन्द"। राम यानि असीम, निराकार पूरण परमानन्द। मन से रावण जो निकाले राम उसके मन में है।
शांत होना
सच पूछें तो असल मायनों में सबसे बड़ी सफलता चित्त का शांत हो जाना है। इस क्षण और अगले क्षण और आने वाले हर क्षण अगर आप शांत हैं तो आप जीवन में सफल हैं। आपकी उपलब्धियाँ चाहे जो भी हों या बिल्कुल ना हों और आपकी परिस्थितियाँ अनुकूल हों या प्रतिकूल, अगर आप शांत हैं तो आप सफल हैं। तमाम उपलब्धियों के बावजूद अगर आप अशांत हैं तो आप सफल होकर भी असफल ही हैं।
अगर शांत होना है तो शांत होना पड़ेगा। बिना शांत हुए शांत हुआ नहीं जा सकता है। अभी और यहीं शांत होना पड़ेगा, भविष्य में नहीं। प्रयास से नहीं, अप्रयास से। सारे क़यास, प्रयास और अभ्यास से मुक्त। शांत होने का प्रयास भी अशांति का कारण बन जाता है।
इसके लिए सहज और सरल होना पड़ेगा। हर पल बिना प्रयास के, स्वाभाविक रूप से सहज होना पड़ेगा। बिल्कुल बेपरवाह, बिल्कुल बेफ़िक्र। कोई चिंता नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई स्वार्थ नहीं। जो हो रहा है, वह हो रहा है क्यूंकि वही होना था, उसे बस होने देना है, इस होने के बीच में खुद को नहीं लाना है। न उसे करने की इच्छा और न उसे न करने की इच्छा। न कुछ पाने की इच्छा और न कुछ छोड़ने की इच्छा। अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई चाह नहीं। जो रहा है, वही होना था, क्यूंकि वो होना ज़रूरी था। जो जैसा है उसे वैसा ही होना था और यही सबसे सुन्दर है। कुछ बदलने की ज़रूरत नहीं है। न किसी प्रयास की ज़रूरत है और न किसी प्रतिरोध की।
समंदर की लहरों की भाँति मन हमेशा हलचल है। यह शांत होना नहीं चाहता और इसे जबरदस्ती शांत किया भी नहीं जा सकता है। पर शांत समंदर की तरह हमारा भी एक एक तल है जो बिलकुल शांत है, उसमे कोई हलचल नहीं। वहाँ ठहर कर होश से सब कुछ होते हुए देखते रहना चाहिए। होश बढ़ते-बढ़ते धीरे-धीरे हलचल कम होने लगती है और कहीं दूर होते हुए प्रतीत होती है। पहले हलचल है और उसके साथ बेहोशी है, फिर हलचल है और होश है और फिर होश ही होश है, बिना किसी हलचल के।
तुम्हें मरना होगा
वो कहते हैं मुझसे
अब तुम्हें मरना होगा
शूली पर चढ़ना होगा
खेले खूब धूम मचाया
जग से क्या कुछ न पाया
पर तुम पा न सके उसे
जिसकी तुम्हें जुस्तजू थी
अपना ही कुछ खोकर फिर
जिसे पाने की आरज़ू थी
मुड़ के देखूँ जीवन को तो
आता मन में ख्याल यही
मिला तो है सब कुछ मगर
हुआ हासिल कुछ भी नहीं
पर सच तो है ये कि
तुम उसे पा सकते नहीं
वो होगा रौशन तभी
जब तेरा वज़ूद रहेगा नहीं
जाओ तुम्हे चलना होगा
कतरा-कतरा जलना होगा
अब तुम्हें मरना होगा
शूली पर चढ़ना होगा
जामे-फ़ना
चाँद
फ़ना फिल हक़
बैठे थे शाख़ पर वो पंछी किधर गए ?
उठ कर बुलबुला पानी में खो गया
यूँ ही जहां में आये यूँ ही गुजर गए
गुम हुई है हीर राँझे की खोज में
राहे-फ़ना के रहबर सभी किधर गए ?
होने ने मेरे ही बढ़ा दी मुश्किलें
ख़ुदी से बढ़े तो हम भी उबर गए
कई मक़ाम हैं तवील सफ़र में
मुर्शीद थे तो पार राही उतर गए
न जाने पर किधर
सपनों की चमक
दोनों आँखों में भर
राहें ठग रही हैं
थमता नहीं सफ़र
मंज़िल है भी क्या
कोई कहीं किधर ?
किस आस पर चलूँ
किस राह पग धरूँ
एक खेल ही तो है
देखूँ चाहे जिधर
हर कोई चल रहा
भागता फिर रहा
तिश्नगी मन की
किसकी मिटी मगर
लाखों में कोई एक
खेल के परे गया
चला वो फ़क़ीर हो
कर धुंआ सब फ़िकर
गोल-गोल ज़िन्दगी
फिर तो वक़्त ही वक़्त होगा
एक सरफिरे शायर ने ठीक ही कहा है
कि ये दुनिया तो जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है
दो दुनिया
या वहाँ जहाँ मुझे होना चाहिए ?
क्या मैं वो करूँ जो मैं करना चाहता हूँ
या वो जो मुझे करना चाहिए ?
ये सवाल अहम् हैं या
इनकी कोई अहमियत नहीं ?
यहाँ दो दुनिया है, दो जीवन
जिनके बीच मैं झूलता रहता हूँ
यथार्थ की धरती पे एक संघर्षों से भरा
वो दुनिया जहाँ शायद मैं होना ही नहीं चाहता
वो जीवन जिसे जीने की मेरी ख़्वाहिश ही नहीं
और दूसरा फैला हुआ ख़्वाबों का आसमान
जो है उम्मीदों के प्रकाश से जगमग
जिसमें हर चीज मुमक़िन है
जहाँ मैं होना चाहता हूँ
जिसे मैं जीना चाहता हूँ
क्या ये मुमक़िन है कि
ये दो दुनिया एक हो जाएँ
और इनके दरमियान जो
दीवार है वो गिर जाए ?
मैं ढूंढ़ रहा हूँ वो मुक़ाम जहाँ होने से
मेरे पैर तो टिके हों ज़मीन पर
पर मैं हाथ फैलाकर आसमां को छू लूँ
बेहतर जीवन
लड़ते लड़ते इंसान
कितना हो जाता है विवश
स्वप्न देखने को
वो स्वप्न जिन्हें वो पलकों पे
सजा के रखता है
जो उसके मन के आकाश में
इंद्रधनुषी रंग बिखेर देते हैं
और उसे ऐसी दुनिया, ऐसे जीवन में ले जाते हैं
जहाँ आज के अँधेरे न हों
और उन्हें जीने को वह चल पड़ता है
अपने घर, आँगन, गाँव को छोड़ कर
संघर्षों की सरिताएँ पार कर
कठिनाइयों के पर्वत लाँघ कर
एक दिन पा ही लेता है वह
उस दुनिया को, उस जीवन को
इसी दुनिया का स्वप्न तो देखा था उसने
इसी जीवन को जीने की तो उसने तमन्ना की थी
उसे पूरी ईमानदारी से वह जीने लगता है
पर जिसको जीते जीते वह
धीरे-धीरे खो जाता है पूरी तरह से
उस नयी दुनिया के तिलिस्म में
और फिर कभी एक लम्बे अरसे के बाद
जब उतरता है जादू तो
एहसास होता है उसे कि इस जीवन ने
ले लिया है उससे उसका सब कुछ
पर जिसे पाने की ख़ातिर चला था वो
दुनिया में उसे तो मिला ही नहीं
वो पीछे मुड़ कर देखता है तो नज़र आते हैं
कुछ डबडबाई आँखें, कुछ हिलते होंठ
और कुछ वापस बुलाते हाथ
वो वापस लौटना चाहता तो है मगर
पाता है स्वयं को एक दलदल में
जिससे वो जितना निकलने की कोशिश करे
उतना और ही धँसता जाता है
एक दिन यूँ होगा
और एक दिन यूँ होगा
उस दिन भी जो बाँकी दिनों जैसा ही होगा
सूरज चुपके से आसमां में आ रहा होगा
और ज़माना धीरे से रफ़्तार पकड़ रहा होगा
उस दिन भी कोई शख़्स कहीं जा रहा होगा
तो कोई कहीं से आ रहा होगा
कोई कुछ कर रहा होगा
ताकि उसके बाद कुछ और कर सके
तो कोई कहीं जाने की तैयारी कर रहा होगा
तुम भी हर दिन की तरह ही
इधर-उधर भाग रहे होगे
उस दिन भी तुम ख़्वाहिशों को दूर झटक रहे होगे
वो जो उस दिन भी तेरे पाँवों से लटक रही होंगी
और गुज़ारिश कर रही होंगी वो तुमसे
कि आज कहीं भी मत जाओ
कि आज कुछ मत निपटाओ
कि आज कुछ भी नहीं है ज़रूरी
कि आज बस बैठे रहो
या औंधे पड़े बिस्तर पे लेटे रहो
या हॉल में पसरे रहो दिन भर
या फिर बालकॉनी में ही पड़े रहो
उकेरो डायरी में वो नज़में जिन्हें दिल में समेटे हो
साहिर की नयी किताब जो मंगाई है उसमें ही डूब जाओ
या जगजीत की फ़ेवरिट प्लेलिस्ट ही लगा लो यू-ट्यूब पर
पर आज घर की दहलीज पार मत करो
बस यूँ ही बैठे रहो तन्हाइयों में
ये ज़िन्दगी जो उलझ सी गयी है
गिरहें इसकी सुलझ सी जाएँगी
तुम जो आज अगर रुक जाओ तो
एक सिरे से थोड़ी ढील मिल जायेगी
तो गिरहें सुलझने लगेंगी
नयी गिरहें और न पड़ेंगी
तुम्हें बैठना था न ख़ुद के साथ ?
इतनी आवाज़ें जो गूँज रही थीं अंदर
उन्हें सुनना था न तुम्हें ?
आज तक उन्हें अनसुनी करते रहे तुम
कहीं-न-कहीं जाते रहे हर दिन
कुछ-न-कुछ करते रहे हर पल
और दिन यूँ बीतते गए
रातें गुज़रती गईं
ख़्वाब तुम्हारे दम तोड़ते गए
तुम ख़ुद से ही दूर होते चले गए
पर उस दिन कुछ यूँ होगा
जब ज़माना अपनी रफ़्तार में दौड़ रहा होगा
और सभी कहीं-न-कहीं मशरूफ़ होंगे हर दिन की तरह
तुम्हारी साँसें धीमी पड़ने लगेंगी
आँखों के आगे अँधेरा छाने लगेगा
न कुछ सोच पाओगे, न चल पाओगे, न बोल पाओगे
तुम मन-ही-मन अपने ख़ुदा को याद करोगे
उससे मिन्नतें करोगे
कि अता कर दे वो तुम्हें थोड़ी सी और मोहलत
कि तुमने तो ज़िन्दगी अभी तक जी ही नहीं है
कि थोड़ा वक़्त मिले तो
कर लोगे वो सब जो करना चाहते थे पर कर न सके
थोड़ा वक़्त ताकि तुम ख़ुद के साथ बैठ सको
और अपनी तरह से जीना सीख सको
ताकि ख़्वाबों को फिर ज़िंदा कर सको
और उन ख़्वाबों को जी सको
पर इतने में साँसें रुक जाएँगी
आँखों की पलकें हिला न सकोगे
ज़िन्दगी का दामन हाथों से छूट जाएगा
और तुम इस जहां से चले जा चुके होगे
अच्छा मान लो
और इसे देख कर तुम नींद से जग पड़े थे
फिर समझ लो कि ख़ुदा ने सुन ली है तुम्हारी
थोड़ी मोहलत और मिल गयी है तुम्हें
तो क्या कल का सबेरा नया होगा ?
क्या तुम दिल की सुनोगे कल, रुक जाओगे ?
या फिर वही होगा जो होता आया है आज तक ?
चलो, तुम्हीं पर छोड़ देता हूँ
अंतिम लक्ष्य
न कोई उत्सव
न ही सन्नाटा
न चुनौतियाँ
न उन पे विजय
न ही मृत्यु
और न मृत्यु पे विजय
न ऐश्वर्य
न ही वैराग्य
मेरा अंतिम लक्ष्य
शून्य
मन की वो स्थिति
जहाँ कोई लक्ष्य नहीं
न भय, न मोह
आशा न निराशा
न विजय की लालसा
न पराजय का भय
न अपूरित कामनाएँ
न नवीन स्वप्न
न कहीं होने की चाह
न कुछ बनने की, न बनाने की
किसी से कोई उम्मीद नहीं
न मंज़िल कोई, न राहों का छलावा
चढ़ने को न कोई सोपान
न विजित होने को कोई शिखर
बस आकाश एक विस्तृत असीमित
शांति और संतोष से प्रकाशित
स्वयं में एक विश्वास कि
परिस्थितियाँ, अनुकूल या प्रतिकूल
लहरों की भाँति आएँ और चली जाएँ
और मैं रहूँ तटस्थ
न अचंभित, न विचलित
अपने में होकर पूर्णतः स्थित
बस शून्य में मिलकर
ऐसे एक हो जाऊँ
कि मैं का अवशेष न रहे
बहता रहूँ
अबाध मैं भी संग बहूँ
बाधाएँ न थाम सकें
किसी के रोके से ना रुकूँ
पाषाणों से टकराऊँ
राहों में जो मिले खड़े
कंठों में उतरूँ ऐसे
फिर कोई प्यासा न रहे
पर्वत पे हूँ उत्श्रृंखल
विनय का परन्तु भाव रहे
बस्तियों से जब निकलूँ
मर्यादित मदिर प्रवाह रहे
ढलानों में सिमट जाऊँ
मैदानों में फैलाव मिले
समर्पण सागर में अंतिम
फिर न कोई चाह रहे
ऑफिस में एक आफ्टर-नून
जब अचानक मौसम
बदल सा गया था
फ्लोर पे एक कॉर्नर में
टेबल पर रखे लैपटॉप से
दो थकी आँखें निकलीं
और धीरे-धीरे
गिलास-विण्डो से
बाहर चलकर
आसमां में
तैरते बादलों के टुकड़ों पर
जाकर टिक गयीं
चेयर पे आगे-पीछे होते
उस इंसान को
वो नज़्म याद आ गई
जो कल रात
मुकम्मल होने से
पहले ही सो गई थी
और जिसे वो
घर पर ही छोड़ कर
सुबह-सुबह ऑफिस
आ गया था
फिर घड़ी पर
उसकी नज़रें गईं
और एक आह सी
निकल गई
अपनी अधूरी नज़्म से
मिलने के लिए
उसे अभी भी
कुछ घंटों का
इंतज़ार करना था
बड़े शहर में
बड़े से एक शहर में
अपनों से दूर हो गया
पर मैं इस चक्कर में
अपनों से दूर तो हुआ
ख़ुद से भी दूरी बढ़ी
ज़िन्दगी मेरी खुश थी पर
अपने पुराने घर में
वहाँ खुशियों का अम्बार था
संग पूरा परिवार था
हर पल था मस्ती का
हर दिन रविवार था
बड़े हुए विवश हुए
इधर-उधर बिखर गए
खो गया कहीं
वो जो सुकून था क़रार था
बहता पानी
5-स्टार होटल के
रूफ़-टॉप
स्विमिंग पूल का
पानी होने से बेहतर
मैं पसंद करूँगा
कहीं
एक छोटे से
देहात में
एक छोटी सी नदी का
बहता पानी बन जाना
तुम मुझे मिली
दूर ग़म हुए, हर ख़ुशी मिली
बादलों से चाँदनी खिली
बेनूर आँखों को रौशनी मिली
जो भी मिला वो हँस के मिला
हर शै से मेरी दोस्ती हुई
मैं और ही कहीं का हो के रह गया
तुम भी कहीं और ही चली
तू मुझमें गुम हुई, मैं तुझमे गम हुआ
चैन भी गया, होश भी गुम हुआ
मेरी धड़कनों में तुम खो गई
तेरी साँसों में मैं गुम हुआ
ख़ुदा से तुझे मैंने माँगा है
ज़िन्दगी मेरी गुलज़ार हो गई
बागों में फूल खिल गए
फ़िजा भी खुशगवार हो गई
हाथों में तेरा हाथ अब लिए
राहों में साथ साथ चल दिए
तेरी हिम्मत से हौसला मिला
शूल भी राह के फूल बन गए
हिंदी, तुम कहाँ हो !
या तुलसी के चौपाईयों में
रहीम, कबीर, बिहारी के दोहों में
दिनकर, निराला, गुप्त, प्रसाद या
बच्चन की कविताओं में
हिंदी, तुझे ढूँढूँ कहाँ !
संदेह से घिर उठता हूँ
जब तेरे इतने रूपों में
तुझे देखता हूँ
दूरदर्शन की चर्चाओं में
या बॉलीवुड की सीमाओं में
या फिर राह चलते
आम हिंदुस्तानी की जुबां पे
हिंदी, तुम कहाँ हो !
क्या तुम ग़ज़लों में नहीं ?
क्या तुम नज़्मों में नहीं ?
तुम नहीं तो कौन है फिर !
तुम स्टेशन में नहीं ?
ट्रेन में भी नहीं ?
कमरे, कुर्सी, बाल्टी में भी नहीं ?
बनारस की जुबान हो
या लखनऊ, दिल्ली या मुंबई की ?
भय में हो पर ख़ौफ़ में नहीं ?
आकाश में पर फलक़ में नहीं ?
चंद्र में तुम, महताब में नहीं ?
सूर्य में तुम, ख़ुर्शीदो-आफ़ताब में नहीं ?
पाठ्य-पुस्तकों में तुम भिन्न हो
दिन-भर की बातचीत में रंग कुछ और है
समाचार पत्रों में कुछ और ही
माना तुम मीर की नहीं, ग़ालिब की नहीं
पर तुम्हें क्या कबीर की कहूँ ?
सूर और तुलसी की ?
और गुलज़ार की भी ?
या फिर सिर्फ पंत, निराला, प्रसाद,
दिनकर, गुप्त और बच्चन की ?
तुम गंगा हो
निश्चय ही इस राष्ट्र की पहचान हो
संस्कृत के हिमालय से निकली
मैदानों में बह चली
कई नदियाँ तुझसे जुड़ीं
और कई तुझसे निकलीं
समा लिया तुमने सबको
समभाव से
सबको साथ लेकर
निरंतर बहती जा रही हो
तेरे पानी के रंग कई
पर सबमे है
वही मिठास
और एक समान ही
बुझाती हो तुम
हर प्यासे की प्यास
तेरी मूल धारा में
अन्य धाराओं का समावेश
और सबका सामंजस्य
ही तुझको महान बनाता है
देश की संस्कृति की तरह ही
बाबाजी बाबाजी
अटक भटक कर
दर पर आ गया
घर पर आ गया
लायक बना दो मुझे
कि देख पाऊँ तुझे
दूजा अब कोई काम नहीं
तेरे सिवा कोई नाम नहीं
जिस हाल रखोगे रहूँगा
ले जाओगे जहाँ जाऊँगा
जो चाहा वो तो दे दिया
क्या रहा जो मांगूँगा
परम पिता तो तुम्हीं हो
बालक दास तुम्हारा मैं
चरणों से दूर मत करना
तुम बिन जी न पाउँगा
तेरी धार में अब बहता फिरूँ
बाबाजी बाबाजी कहता फिरूँ
मेरे राघव मेरे राम
स्लोप पर हूँ
किस राह से
किधर जा रहा हूँ !
कोई खींचता है मुझे
तो कोई फेंकता है
तो कोई धकेलता है
एक स्लोप पर हूँ
जाने मैं कब से
ख़ुद से तो अब
रुक पाना मुमकिन नहीं
ख़ुदा के घर चलो
मैं कहीं और मुड़ गया
ख़ुद से ही बिछड़ गया
दुनिया से जब जुड़ गया
किस ओर मुड़ूँ मैं
किस ओर चलूँ मैं
है प्रश्न वही फिर
सामने मेरे खड़ा
ये मेरी आँखों का धुँआ है
या चराग बुझ रहे कहीं
चलो ख़ुदा के घर चलो
बाहर तंग अँधेरा है
क्या कहूँ !
कैसे हैं मेरे जज़्बात, क्या कहूँ !
मुद्दत बाद मिले हो तुम
यहाँ कैसे थे हालात, क्या कहूँ !
कैसे तेरे आने की आस में
कटे न दिन रात, क्या कहूँ !
मौसम आते जाते हैं पर
थमते न बरसात क्या कहूँ !
वादे तेरे, तेरी कसमें
हैं बस बीती बात, क्या कहूँ !
उलझन
ख़ुद को बहलाता हूँ
मंज़िल तक नज़र नहीं
लेकिन चलता जाता हूँ
आँखों में धुँआ सा है
रस्ता भी सूना सा है
मन क्या ढूँढ़ रहा है
कुछ नहीं अपना सा है
सफ़र ये जो ज़िन्दगी है
कब से भरमा रही है
किस ज़ानिब मुझे जाना है
कहाँ ले के जा रही है
सफ़र जो थोड़ा मुश्किल लगे
राही तू यूँ राहगुजर पर
चल उठ कुछ ईरादा कर
नज़र कर अपनी मंज़िल पर
कदम क्यों तेरे डगमगाए
चाहे लाख मुसीबतें आएं
संदेह के बादल मंडराएं
आत्म-विश्वास कम न हो पाए
राह जो आगे बंद मिले
चिंता क्यों मन में पले
दुगुने कर ले हौसले
बंद सारी राहें खुलें
सफ़र जो थोड़ा मुश्किल लगे
बुझा-बुझा क्यों दिल लगे
मौजें जो क़ातिल लगें
और दूर तुझसे साहिल लगे
ख़ुद से कर ले अब फैसला
कम न होगा कभी हौसला
चलता रहे चाहे अकेला
या संग चले कोई काफ़िला
ख़ुद को बना हमसफ़र
तन्हाईयों में तू वापस आएगा मुसाफ़िर
यहाँ जो चैन है, सुकुनो-क़रार है
भटकेगा कहाँ ऐ बेक़रार मुसाफ़िर
थक-हार कर सफ़र में बैठेगा जब कभी
ये डगर तुमको याद आएँगे मुसाफ़िर
काफ़िले निकल जाएँगे साथ तेरा छोड़कर
बस एक यही रिश्ता रह जाएगा मुसाफ़िर
गरम रेत पर कब तक चल पाएगा अकेला
ख़ुद को बना ले अपना हमसफ़र मुसाफ़िर
एक साल और बीता
वक़्त मेरी लम्बी कर अतीत गया
संघर्ष का क्रम मगर जारी रहा
धूप-छाँव में द्वंद्व भारी रहा
पाने-खोने का चलता रहा सिलसिला
मौसम बदलते रहे रुका नहीं काफ़िला
सफ़र का ये पड़ाव भी निकल गया
एक और दरिया सागर से मिल गया
रुख़सार से नक़ाब थोड़ा और हट गया
साया ज़िन्दगी का कुछ और सिमट गया
वाक़िफ़ी इससे थोड़ी और पुरानी हो गई
राहें कुछ और अपनी पहचानी हो गईं
भँवर मगर और गहराता चला गया
ख़ुद को मैं और कमजोर पाता चला गया
जीत-हार से ख़ुद को ऊपर उठाता चला गया
मैं जीवन का साथ बस निभाता चला गया
अपने दामन में अब यादें भर रहा हूँ
आगे सफ़र की अभी तैयारी कर रहा हूँ
अभी ऐसे जाने कितने और मुक़ाम आएँगे
हर बार हम यूँ ही आज़माये जाएँगे
ज़िन्दगी थोड़ी मुझे भी चाहिए
बाँकी हवाओं में गर ताजगी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए
दौर ये तूफां का है, चराग बुझे हुए हैं सारे
आज सितारों में गर रौशनी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए
हर तरफ शोर कितना, चीखों की आवाज़ें हैं
बची कहीं गर खामोशी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए
सहरे की धूप में चल चल कर थक चुका हूँ
कहीं बादलों में गर नमी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए
चलते रहना है
पिछड़ गए हैं माना, पर हारे नहीं हैं हम
चलते चलते राहों में थोड़े भटक से गए
मुड़ जाएँगे फिर से सही दिशा में कदम
हौसला है पा लेंगे मंज़िल को एक दिन
बदल जाने दो अगर बदलते हैं मौसम
पड़ाव को सफ़र की इंतेहा समझ बैठे
हरियाली देख हो गए थे थोड़े खुशफ़हम
चलो चलें फिर से कि काफ़िला चल पड़ा
शबो-दिन चलना है मुसाफ़िर का करम
मौला मेरी अरज़ सुनो
मौला अब न इंकार कर
मत फेर नज़रें इधर से
कब से खड़ा तेरे द्वार पर
छोटी सी एक फ़रियाद है
दुखियारे मन की आस है
एक तेरा दामन मेहफ़ूज़
बस तेरा ही विश्वास है
बन्दे को अब ना निराश कर
जी रहा हूँ तेरी आस पर
तेरा ही नाम बसा है मौला
मेरी एक-एक साँस पर
तुम हताश क्यों होते हो ?
तुम हताश क्यों होते हो ?
दुःख तोआएँगे ही
इन्हें देख क्यों रोते हो ?
जब तक कि ये सफ़र है
ज़िन्दगी की राहगुज़र है
सफ़र में धूप तो रहेगी
साये को सर पे न पाकर
तुम उदास क्यों होते हो ?
तुम हताश क्यों होते हो ?
जब तक कि ये मेला है
सुख-दुःख का रेला है
जान कि तू अकेला है
हाथों से हाथ छूटेंगे ही
राहों में साथ छूटेंगे ही
आज जो तेरे संग हैं
कल तुमसे रूठेंगे ही
जो कोई आज रूठा तो
तुम निराश क्यों होते हो ?
तुम हताश क्यों होते हो ?
तुम हताश क्यों होते हो ?
दौड़ चुके हो बहुत, अब सुनो
और थक के सो जाओ
उठो, फिर दौड़ो, थको
और फिर सो जाओ
फिर उठो, दौड़ो, थको
और सो जाओ
कब से होता आ रहा है !
कब तक होता रहेगा ?
तेरी मंज़िल जब तक है बाहर
तब तक होता रहेगा
चाहते हो जो तुम
सुख सारे बटोर कर
रेत को मुठ्ठी में भर
सब हासिल कर लेना
पर ज़िन्दगी दुखों के सिवा कुछ भी नहीं
रेत भी हाथों से फिसल ही जाती
हासिल कुछ होता नहीं
जमा कुछ भी रहता नहीं
दौड़ चुके हो बहुत, अब सुनो
थम जाओ, समझो, जान लो
जिस दिशा में भाग रहे थे
उसे उल्टी कर लो
साँसों की डोर थाम
अंदर की ओर चलो
जागो एक बार ऐसे
की फिर सोना न पड़े
क्या ढूंढ रहा हूँ मैं !
क्या था जिसकी खोज में इतनी दूर निकल आया हूँ
कुछ हुआ भी हासिल तो अगले ही क्षण खो दिया उसे
पा कर जिसे थम जाऊँगा, वो शै कहाँ ढूंढ पाया हूँ
मैं धरा से गगन तक नहीं उड़ जाना चाहता था
नदी था, मैं बस समंदर तक बह जाना चाहता था
मेरे लिए भी आसान था सब छोड़ कहीं चले जाना
पर संघर्षमय रहकर ही मैं सत्य को पाना चाहता था
सत्य की गठरी छिपी नहीं हिमालय की गुफाओं में
न गंगा की डुबकियों में, न साधुओं की जटाओं में
मंदिरों में बंद नहीं ये, यही है बाहर खुली हवाओं में
यही मेरे मन में, ह्रदय में, धमनियों में, शिराओं में
पर जन्मों की तृष्णा में डूबा, पार अब जाने कब लगूँ
चिर-निद्रा में सोया हुआ, मैं क्या जाने अब कब जगूँ
कविता जिसे मैं जानता था
जिसे मैं जानता था
कैसे बदल गयी वो !
वो सजती सँवरती थी
इठला कर चलती थी
शोख़ थी वो, उसमें चंचलता थी
दिल के हिमालय से पिघलकर
बड़ी रवानी से बहती थी
मृतप्राय हो चुकी है शायद
अस्तित्व खो रही है अपना
किसी विलुप्त प्राणी की तरह
अभी जिसे मैं देखता हूँ
जिसने उसके नाम का
बस मुखौटा पहन रखा है
हमशकल है उसी की
मगर उसमें वो लोच नहीं,
उसमें वो रवानी नहीं
दिलों तक वो पहुँचती नहीं
न वो अंतर के द्वंद्व पे
कुछ कहती है
न दर्द किसी का ढोती है
न ही माशूक़ से
मोहब्बत की बात करती है
न आत्मा की परमात्मा से मिलन की
हाँ इन सब की जगह
मुद्दों ने ली है
बिकुल एक श्वेत-श्याम
अख़बार की तरह
जिसमें जीवन का कोई रंग नहीं
जो न दिल से निकलती है
न दिल तक पहुँचती है
उम्मीद छोड़ दूँ क्या मैं
या वो आएगी वापस ?
कविता जिसे मैं जानता था
क्या हो गया उसे !
कैसे बदल गयी वो !
ख़्वाब तुम्हारा
तो फ़ासले मिटेंगे
दिल मिलेंगे
हाथ मिलेंगे
क़दम एक साथ उठेंगे
फिर सफ़र कितना भी मुश्किल क्यों न हो
दूर कितनी भी मंज़िल क्यों न हो
चलेंगें जब साथ राहों में
तो होंगीं कम दूरियाँ
आसां होंगीं मुश्किलें
हासिल होंगीं मंज़िलें
एक के बाद एक
फिर पाने को होगा
बस आसमान
ये ख़्वाब जो तुमने देखा है
यक़ीन मानो
मुक़म्मल होगा एक दिन
अब नहीं होता
बुलशिट सहन अब और नहीं होता
सपने हैं कई बंद इक बक्से में
ये बोझ वहन अब और नहीं होता
ये कहें ऐसा कर लो अच्छा होगा
वो कहें वैसा कर लो अच्छा होगा
मन चाहता है कुछ और ही करना
पूछ कर चयन अब और नहीं होता
गुस्सा छुपा के है रखना सीखा
सब को बस खुश रखना सीखा
पर जो अंदर है अब वही हो बाहर
झूठ प्रदर्शन अब और नहीं होता
जीकर इतना तो हमने जाना
पाना-खोना बस अफसाना
मिल जाए तो अच्छा, पाने को पर
चंचल मन अब और नहीं होता
ऐसे में
ठहरी-ठहरी साँस है
जाने किसकी आस है
कोई आस है न पास है
ऐसे में
तुमको जो बुला सकूँ
बुला के ये बता सकूँ
बता के ये जता सकूँ
कि तुमको न भुला सकूँ
ऐसे में
तुम यहाँ जो आ सको
दो पल संग बिता सको
कोई गीत गुनगुना सको
हँसा सको मुझे रुला सको
ऐसे में
दिल को फिर यकीं हो
तुम हो यहीं कहीं हो
न शाम फिर उदास हो
न ये दिल ही ग़मगीं हो
किसी हिस्से में
एक बर्क़ सी लहराती है
एक हसरत
कोई ख़्वाहिश, कोई आरज़ू
फिर शुरू होता है
एक सिलसिला
ख़यालों का, तस्सवुर का
सोच के समंदर में
मैं डूबता हूँ, उभरता हूँ
फिर जब इरादों का
साहिल मिल जाता है
तो उतरता हूँ ज़मीन पर
क़दम बढ़ाता हूँ
इब्तिदा होती है
एक सफ़र की
कोई सफ़र लम्बा होता है
तो कोई छोटा
कभी मंज़िल मिलती है
तो कभी नहीं
पर कमोबेश
यही सिलसिला होता है
जब भी मैं कुछ करता हूँ
पर इसका एक हिस्सा ही
ज़मीन के बाहर होता है
बड़ा हिस्सा तो मेरे ज़ेहन के
अंदर ही होता है
एक पेड़ की तरह ही
जिसकी जड़ें ज़मीन के
अंदर होती हैं
किसी-किसी पेड़ को
ज़मीन के बाहर आने में
ज्यादा वक़्त लगता है
तो कुछ जल्दी भी आ जाते हैं
एक डर मगर रोक देती है क़दमों को अक्सर
रह-रह कर दिल में अफ़सोस होता तो है बहुत
अब भी अगर कभी जो देखता हूँ पलटकर
आवाज़ देकर राहें बुलाया करती थीं हमें
हर बार मगर रुक जाते हम मोड़ पे आकर
इब्तिदा में मंज़िल कब साफ़ आती है नज़र
कोहरा हट ही जाता है चलते रहने से मगर
हुआ है कई बार यूँ भी सफ़र में अक्सर
राह गलत थी जाना है ये मंज़िल पे आकर
दिल में वो प्रीत दे
मैं गीत गुनगुना सकूँ
ये इजाज़त भी दे
तुमको मैं सुना सकूँ
राहों में संग हो
चाहे जिस भी मोड़ तक
छोड़ना तभी मुझे
तुझे मैं जब भुला सकूँ
हो ये यकीं का रिश्ता
पक्का और कच्चा
तुम मुझे आज़मा सको
मैं तुझे आज़मा सकूँ
ख़्वाब तेरे हों जुदा
पर मुझे तुम बता सको
मुख़्तलिफ़ सोचूँ जो
तो मैं तुझे बता सकूँ
तुम मुझको थाम लो
मैं तुमको थाम लूँ
दूर हों न यूँ भी कभी
जो तुझे न मैं बुला सकूँ
करना या बस होना !
एक मुसलसल जंग
करने और होने के दरमियान
करना जो इंसान का फ़ुतूर
और होना उसका मुस्तक़बिल
करना जो होने नहीं देता
लेकिन होने तक का रास्ता
करने से ही होकर गुज़रता है
करना कभी बादल बनकर छाता है
होना कभी सूरज बनकर आता है
करना जैसे पहाड़ से निकल कर
समंदर तक दरिया का बहना
होना जैसे पहाड़ पे फैली बर्फ
और पसरे समंदर का पानी
करना जैसे क़ैदे-ज़ीस्त कोई
होना सारे ग़म से नजात जैसे
करना जैसे सीने में आग, सर पे जुनूँ
बेताबी, बेचैनी, छटपटाहट, जुस्तुजू
होना लेकिन जैसे इन सब का न होना
जैसे चांदनी रात, उस रात का सुकूँ
घास में ठहरी शबनम की बूँद
करना जैसे हो बिखर जाना
और होना जैसे सिमट जाना
करना जग को पाकर ख़ुद को खोना
होना ख़ुद में खोकर ख़ुद को पाना
करने का दायरा फैलता जाता
करने का, करते रहने का सिलसिला
चलता है, चलता ही रहता
जब तक कि ख़्वाहिशें हैं, आरज़ू हैं
इंसान कुछ करता है
उसके बाद कुछ और
और फिर कुछ और
पर तिश्नगी मिटती नहीं
बेताबी, बेचैनी कम होती नहीं
कुछ करना तो है ज़िंदा रहने की ख़ातिर
कुछ जिम्मेदारियों की ख़ातिर
पर कुछ करना ऐसा भी है कि जिन्हें
करने- न करने पर इख़्तियार है उसे
पर वो रुकता नहीं, सिलसिला थमता नहीं
जब तक कि ख़्वाहिशें हैं, आरज़ू हैं
पर करते रहने से मर जाता है होना
सच तो ये है कि न होने से
रुक पाएगा नहीं करने का सिलसिला
पर कुछ करने से ही पैदा होंगे
होने के इम्कान, ये भी सच है
तो करें हम सोच कर करने का इंतिख़ाब
ऐसे कि सिमट जाए करने का दायरा
और निकल आए होने का आफ़्ताब
छोटी होती जाए करने की ज़मीं
बड़ा होता जाए होने का आसमां
ग़ैर-जरुरी करना गिरें शाख से
सूखे हुए पत्तों की तरह
और होने में होकर ही इंसान
करे बस वो जो है जरुरी करना
और करने से हुआ है क्या
इंसान को हासिल ?
कुछ तबस्सुम, कुछ आँसू
खुशियाँ कुछ पा लेने की
ग़म कुछ खो देने का
और फिर आने वाले कल का ख़ौफ़
या उससे बेइन्तिहा उम्मीदें
और फिर उनके टूटने का ग़म
होना लेकिन है अभी इसी पल में होना
न अगले पल से और न
आने वाले कल से कोई उम्मीद
और न अगले पल का, न ही
आने वाले कल का कोई ख़ौफ़
तेरी इनायत के बिना हूँ मैं किस काम का
लगा रहता हूँ दिन भर काम में मगर
सारा दिन इंतज़ार करता हूँ मैं शाम का
क्या-क्या करता हूँ दुनिया में रहकर
समझता यही हूँ कि हर काम है राम का
बस तेरे रस्ते चलता रहूँ, दे हौसला तू
रस्ता रह चुका है जो पहले भी तमाम का
तेरे नाम में डूब जियूँ, तेरा ही काज करूँ
हंस कर जीता जाऊँ जीवन गुमनाम का
मैं अपने अंदर उतर कर देखूँ
कि वहां का माज़रा क्या है
तो पाता हूँ कि
दरवाजे पर जंग है
और ज़ीने पे धुल पड़ी है
गोया कोई सालों से
आया न हो इधर
हॉल की दीवारों पर
समझदारी का रंग चढ़ा है
जज़बातों के कमरे के ऊपर
प्रैक्टिकैलटी की लॉक चढ़ी है
इस लाइब्रेरी-कम-ऑफिस में
जहाँ बैठ कर मैं
अनवाइंड होता था
इस क़दर अँधेरा क्यों है वहां !
और संवेदनाओं को
समेट कर कोने में
किसने रख दिया है
दूसरे कमरे में जहाँ
मैंने यादों को
सहेज कर रखा था
वहां की बत्ती
आज भी जलती है
लेकिन इन यादों को
बड़े वाले कमरे में
शिफ्ट करना पड़ेगा
ये कमरा अब
छोटा पड़ने लगा है
काफी काम पड़ा हुआ है इधर
अब इधर आते रहना होगा
इस बे-तरतीब से
मकां को ठीक करना पड़ेगा
अगली बार
तुम्हे भी साथ लेकर जाऊँगा
दिन भर के ख़याल जब ऊँघने लगते हैं
दबे पाँव सबसे नज़रें बचाकर आती हैं
तुम्हारी यादें दिल पर दस्तक देती हैं
और उनकी उंगलियाँ थाम कर मैं
तसव्वुर की राहों में निकल जाता हूँ
चाँद आसमां में बादलों से निकलता है
लहू में घुलकर कुछ रगों में बहने लगता है
लगता है आज की रात फिर देर से बुझेगी
मैं डायरी और पेन निकाल लूँ जरा
एक नयी नज़म लिहाफ़ के अंदर
अंगड़ाई ले रही है
सबेरा
वो कली जो खिल न सकी
उम्मीद जो पल न सकी
वो शब जो ढल न सकी
परिंदा वो सुबह का जो
ख़्वाब से हमें जगा गया
नए दिन की उम्मीद करना
फिर से हमें सिखा गया
कह दो कोई उस परिंदे से जाकर
कुछ आँखों में नींद नहीं होती
कुछ नींदों में ख़्वाब नहीं होते
कई ख़्वाब यहाँ पूरे नहीं होते
होती हैं कई रातें ऐसी भी
जिनके हिस्से सबेरे नहीं होते
इसलिए चुप रह जाते हैं
हैं कुछ लोग जो जाकर भी
यादों में रह जाते हैं
छोड़कर दामन जब था जाना
मेरी राहों में आये क्यों थे
महका कर दिन-रातों को
साँसों में समाये क्यों थे
दिन पहाड़ सा बैठा रहता
रात भी कहाँ गुज़रती है
तेरी एक ख़बर पाने को
रूह मारी-मारी फिरती है
कुछ उठता दिल से रह-रह कर
कुछ पलकों से बह जाता है
गा देता हूँ कभी गीत कोई
कुछ होठों में रह जाता है
आओ मुझसे ख़ुद को ले जाओ
मेरा मैं मुझे वापस कर दो
न मुझमे तुम बचे, न तुझमे मैं
करम अब इतना बस कर दो
रहता है आख़िर कौन यहाँ
अँधेरा पाया और उमस भी
और वीरान पड़ी एक बस्ती
ढही ईमारत, सुनसान राहें
हर कोने से उठती आहें
सन्नाटा कुछ बयान करती
अज़नबी की पहचान करती
सोज़ बहुत और ग़ुबार भरा
अंदर था हाहाकार मचा
क्या कोई यहाँ रहता है !
क्या अब भी कोई रहता है !
टूटी हुई कमजोर एक काया
बस इतना मैं देख पाया
चेहरे पर दर्द की रेखा
मैंने अपने आप को देखा
परेशां और ग़मगीन पड़ा
बदन सलाखों में जकड़ा
अंदर एक क़ैदी इंसान
जर्जर और लहू-लुहान
मेरा मन तड़प रहा था
मुझसे कुछ कह रहा था
इस क़ैद से अब आज़ाद करो
उन्मुक्त गगन में उड़ने दो
मैं था अंदर क़ैद मेरे
ख़ुद पे ज़ुल्म हज़ार किये
अब तो थोड़ी रौशनी हो
सुकूँ और क़रार मिले
जंजीरें टूटने लगीं
तमस भी हटने लगा
दर्द काफ़ूर हो गया कहीं
मैं मुझसे नहीं रहा अज़नबी !
इसलिए मैं भी जीऊँ !
करते हैं जो सभी
वो मैं भी करूँ !
मक़सद कुछ साफ नहीं
दिखती आगे राह नहीं
चलते हैं जो सभी
वो राह मैं भी चलूँ !
वजह काफी नहीं इतनी
जीवन के होने की
कारण होंगे और कई
जरुरत आहे समझने की
जीवन का अर्थ है क्या
क्या कर्तव्यों का आधार
दुनिया के इस रंगमंच पे
जाने क्या मेरा क़िरदार !
सवाल ऐसे कई अनगिनत
उठते हैं मन में अविरत
इनके ही फेरों में उलझा
चलता रहा हूँ अपने पथ
पर अब मौन का वक़्त नहीं
चुप्पी तोड़नी होगी अभी
अब एक शुरुआत लाज़िमी है
पहले काफी देर हो चुकी
किधर था, कहाँ था
था तो किस लिए, किसके लिए था
ख़ुद को था कहाँ ख़ुद का पता
ज़िन्दगी व्यस्त और गुम कहीं
दिन और रात का इल्म नहीं
तलब न जाने किस चीज की
जाने क्या ज़ुस्तज़ू दिल में थी
न सोचा कभी पहले मगर
है कोई एक शख़्स हमसफ़र
जरूरतें जुदा जिसकी
या कहें तो कुछ भी नहीं
दर्द मिले तो एहसास हुआ
सांसें थीं पर जिन्दा न था
मेरे संग पूरी दुनिया थी
ख़ुद से पर जुदा तन्हा था
फिर आई नयी एक सहर
कई सारे सवाल लेकर
कौन हूँ मैं ?
हूँ या नहीं हूँ मैं ?
एक सूरज सा शख़्स आया था कहीं से
जो लगा जीवन के सूत्र जानता हो जैसे
उसके संग देर तलक़ बैठा रहा
रूबरू हुआ ख़ुद से और ख़ुदा से
चलता तो हूँ अब भी मगर
है पर मुझको मेरी ख़बर
सब मेरे अपने से अब लगते हैं
जीवन हो गया एक सुहाना सफ़र
नदिया के सुन ओ जल कल-कल
तीर पे थिर जा, थम जा दो पल
भटक रहे क्यों हो यूँ बेकल ?
आये कहाँ से, कहाँ को है जाना ?
कुछ है तेरा ठौर ठिकाना ?
क्यूँ है तुमको बहते जाना ?
अपना घर पर न बिसराना
भटक-भटक कर क्या पाते हो ?
जन्मों से आते जाते हो
किन रस्तों पे खो जाते हो ?
सांझ पहर फिर पछताते हो
जिस घर से आये उसी घर जाना
रुक जाए तो पा जाए ठिकाना
दो पल जीवन फिर ना गँवाना
लूट ले क्रिया का खजाना
क्रिया है चाबी, तेरा मन है चोर
ले जाता यही सागर की ओर
थाम के पतरी सांस की डोर
बह जा तू अब कैलाश की ओर
कैसे कहूँ पहले का तुझसे रिश्ता न था
उम्र भर की ज़िंदगी का कुछ यह तज़ुर्बा था
अपना लग कर भी यहाँ कुछ अपना न था
आये थे यहाँ कहीं और जाने के वास्ते
रस्ता ही था ये कोई मंज़िल का निशां न था
वक़्त बदलता है, हालात बदल जाते हैं
मैं भी जैसा हूँ पहले कभी वैसा न था
कुछ करने की चाहत, कहीं होने की मशक़्क़त
जीता भला कैसे इन्हीं में गर मरता न था
ख़ुदा हर लम्हे में है, हर शै में है ख़ुदा
मुसाफ़िर अकेला होगा कभी तन्हा न था
मेरा शजर था
मुझसे जो छूटा
मेरा ही घर था
टूटे वो सपने
छूटे वो अपने
दो कौड़ी दे के
सब छीना जग ने
मेरी थीं वो रातें
मेरा सहर था
मुझसे जो छूटा
मेरा ही घर था
तन्हा सा मन
सूना ये गगन
रुठ गया क्यों
मुझसे यूँ जीवन
मेरी थीं गलियाँ
मेरा शहर था
मुझसे जो छूटा
मेरा ही घर था
मेरा था आँगन
मेरा शजर था
मुझसे जो छूटा
मेरा ही घर था
धरा गगन से मिलती है
सुबह-सुबह जहाँ
कली इक उमीद की खिलती है
सूरज लेकर जहाँ आता विहान
शुरू जहाँ करता उत्थान
फिर बाँट कर अपनी ऊर्जा सारी
जहाँ खतम करता ढलान
निरन्तरता है ये जीवन की
आरोहण व अवरोहण की
उर्ध्व-गमन की, अधोपतन की
उन्नयन की, अवनमन की
शाश्वत है ये क्रम प्रकृति का
सुबह आती, फिर आती शाम
हर दिन जैसे नया इक जीवन
औ रात्रि मृत्युपरांत विश्राम
क्या तुम्हें फिर जाना ही होगा ?
रोये थे हम कितने बेबस होकर
क्या उस दिवस को आना ही होगा ?
मैंने तुमसे कहा था छुपा लो मुझको
समय भी जहाँ न ढूंढ पाये आकर
तुमने मुझे पकड़ लिया था कसकर
"आओ, अपने में छुपा लूँ" कहकर
तेरे उस कोमल मन से खेला मैं
और इक बचपन से खेला मैं
किसी कमजोर मनुष्य की भाँति
चला आया दूर अकेला मैं
फेर जगत के समझ ना पाता
बस संग हवा के बहता जाता
रुकना चाहा पर नहीं रुका मैं
ये दोहरा खेल अब नहीं सुहाता
कभी कितना विवश होकर इंसान
कर्म-पथ पर आगे चलता है
दुविधा कभी होती दूर नहीं
वो तिल-तिल कर जलता है
स्वप्न क्या साकार हुए ?
ख़यालों में था जैसा पाया
हासिल भी उसी प्रकार हुए ?
क्या हुआ भी कुछ या निरा भ्रम था ?
व्यर्थ मेरा क्या सारा श्रम था ?
ख़्वाब में तो था मेरे आसमां
यथार्थ पतन का पूरा क्रम था
न चलूँ अकेला कर्म-पथ पर
क्या ऐसा है मुमकिन नहीं ?
सरल जीवन, इच्छाएं कम हों
बोझ मन पर अनगिन नहीं
क्यों दौड़ रहा हूँ हाँफ-हाँफ कर ?
किसके लिए मैं जीता हूँ ?
न उन्हें ही मधु मैं पिला सका
औ' खुद भी विष ही पीता हूँ
मुझे तब कहाँ फुर्सत थी
रुंधे गले से था रोका तुमने
पर मेरी और ही हसरत थी
इक आवाह्न पर निकल गया
कर झटक कर चल दिया
कहीं पर फैला कर तम
कहीं पर जाकर जल गया
नर क्यों मजबूर इतना है !
किस भ्रम में चूर इतना है !
मैं तुम से दूर हुआ कुछ यूँ
सूर्य धरा से दूर जितना है
अब मन में यही विचार करूँ
समय न और बेकार करूँ
यहाँ के दीये बुझाकर अब
दूर घर का अंधियार करूँ
पथ का मुझको भी ज्ञान नहीं
गतिमान हूँ कब से जाने
मंज़िल का पर अनुमान नहीं
कोई मिला तो छूटा कोई
पर अक्सर तन्हा ही चलता हूँ
थके पाँव सहलाता खुद से
गिर के खुद ही सम्हलता हूँ
कभी-कभी जो रुक जाता हूँ
लेने को थोड़ा सा दम
मन के प्रश्न खड़े हो जाते
दिशा बदलूं या जाऊं थम ?
पूछे अर्जुन कृष्ण कहाँ है ?
अंतर्मन में द्वंद्व यहाँ है
गीता का फिर पाठ पढ़ाओ
दिशाहीन सारी दुनिया है
जीवन नर का है तो चलना होगा
शूल-फूल सब सहना होगा
सत्य से जब साक्षात्कार हो
तभी सार्थक जीना होगा
अपनी-अपनी करिये सनम
हज़ार राहें जहाँ में हैं
अपनी-अपनी चलिए सनम
अनसुने अनजाने यहाँ
हैं कितने अफ़साने यहाँ
किसका फ़साना कौन सुने
खुद कहिये ख़ुद सुनिए सनम
दर्द लबों पर आ न जाए
अश्क़ पलक से छलक न जाए
सबके अपने दर्द यहाँ
दिल की दिल में रखिये सनम
सुख कौन किसे दे देता है
दुःख किसका कोई ले लेता है
ये कथनी मन हल्काने के
सब अपनी करनी भरिये सनम
बुझते पलों में कैसे सुलगते प्राण भरूँ
जो उबलता था, अब धमनियों में है अवरुद्ध
पुनः-प्रवाह हेतु उनमें क्या ऊर्जावान भरूँ
कुछ दुनियादारी कुछ अपनी लाचारी है
गुत्थी पूरी उलझी है, कैसे समाधान करूँ
भ्रम से घिरा लक्ष्य, तम से भरा पथ मेरा
ऐसे में सही दिशा का कैसे अनुमान करूँ
जीवन तू सुगम सरल नहीं है लेकिन
अश्रु बहा रचयिता का क्यों अपमान करूँ
नीचे एक स्विमिंग पूल है
सुबह-सुबह ढेर सारे कबूतर
उसके गिर्द जमाबंद बैठ जाते हैं
फिर कोई एक इधर से उधर उड़कर जाता है
तो कोई उधर से इधर
सब पूल के चारो तरफ ही उड़ते हैं
पर कुछ पल से ज्यादा एक जगह पर नहीं बैठता कोई
लगता है मिलकर म्यूजिकल चेयर खेलते हैं
कायनात में जो एक धुन बजती रहती है
उसी संगीत पर खेलते होंगे
पर सोचता हूँ उसे ऑन-ऑफ कौन करता होगा !
किसके हाथ में था खंज़र, मुझसे ही तुम पूछते हो
हवा से पूछो तो जिसने गिराया इन शाखों को
किस बावत उठा बवंडर, मुझसे ही तुम पूछते हो
ग़ुबार के नीचे से देखो चीखें किसी की आती हैं
इस मोड़ पे थे किस-किसके घर, मुझसे ही तुम पूछते हो
उस आग को तुमने फूंका था जब वो चिंगारी थी
कैसे जला है ये शहर, मुझसे ही तुम पूछते हो
रोती है रातों को जो ख़्वाब सुनहरे देखती थीं
क्यूँ है उन आखों में डर, मुझसे ही तुम पूछते हो
मुसाफिर से भी पहले, जो कदम उठे इन राहों पर
वो आते क्यूँ नहीं नज़र, मुझसे ही तुम पूछते हो
एक शाम सुहानी लिख देना
नाम मेरा कोई पूछे तो
बस तेरी दीवानी लिख देना
याद मेरी जो आये तो
अश्क़ों को हर्फ़ बना लेना
शब् की स्याह सफहों पर तुम
दिल की कहानी लिख देना
याद है तुमको वो पल क्या
जब तुम जाने वाले थे
आँखों से तूने जो पोछा था
उसको न पानी लिख देना
बरस रहे थे हम तुम दोनों
भींग रहे थे हम तुम दोनों
खामोशी में जो जन्मी थी वो
नज़म पुरानी लिख देना
गीत जो हमने गाये थे
कसमें जो हमने खायी थीं
मैं उनमे जीने मरने लगी
इसे बस नादानी लिख देना
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
न धूप भरी ज़मीं
न सूरज भरा आसमां
न सुकूँ के दिन-रात
न तेरी चाहतों का जहां
तू चली तो मेरे संग हमसफ़र
मगर उन राहों की मुश्किलो के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
मैं तो उड़ता रहा हूँ बस
अपने ख़्वाबों की खातिर
तेरे भी तो ख्वाब होंगे
कैसे भूल गया मैं आखिर
तुमने तो ऊँची परवाज़ दी मुझे
पर बाँधने वाले कुछ रिश्तों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
खुद रही है तू क़ैद में एक
और मुझे आज़ाद किया है
सब कुछ अपना छोड़ कर
मेरा जहां आबाद किया है
तूने क्या माँगा था मैं सोचता रहा
मगर मेरे हज़ार झूठे वादों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
मेरी ज़िन्दगी के तमाम ग़मों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
और अनजान मोड़ों से गुज़रना है
बैशाखियाँ फिर से न दे देना मुझको
मुझे तो अब बिन सहारों के चलना है
चाँद सा मामूल नहीं हो सकता मेरा
मुझे देर तलक़ सूरज सा जलना है
अपने आशियाने में मत रोक मुझे
अभी तो सहर होने तक चलना है
देर तो होगी, मुश्किलें भी कम नहीं
हवाओं का रुख़ जो अभी बदलना है
दुनिया जलने-बुझने का सिलसिला सही
किसी दिए को बुझना, किसी को जलना है
दैरो-हरम ही सबब हो गए फ़सादात के
छोड़ो फिर मुसाफ़िर क्या मज़हब का करना है
प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
कन्धा जब झुक जाता है
मेरा हर पल, हर बात हो तुम
मौला ने जो बक्शी है वो
मेरे जीवन की सौगात हो तुम
वज़ह मेरे रोने हंसने की
मेरे दिल की हर जज़्बात हो तुम
तेरे बिन अधूरा सा मैं
मेरी पूरी क़ायनात हो तुम
ख्यालों में ख्वाबों में तुम
रहता हूँ तेरी यादों में गुम
आँखें हर पल ढूंढे तुमको
कानों में तेरे नाम की धुन
मेरा दिन हो तुम, रात हो तुम
मेरा हर पल, हर बात हो तुम
तेरे बग़ैर कोई ख़्वाब ज़िंदगी का बुन पाता नहीं
रस्ता तो हो वो जिसपे तुम हो मेरे हमसफ़र
हाथों में तेरा हाथ हो जब मंज़िल आये नज़र
धुप-छाँव हो या हो बारिश या फिर अँधेरा
तुम संग रहो मेरे तो आसां है मेरा हर सफ़र
मेरे हमदम तुमसे ही ज़िंदगी की ये बहार है
हर फूल में खुशबू है, हर लम्हा गुलज़ार है
तेरे दम से रौशनी है मौसम का मिज़ाज़ है
खिलखिलाती है सुबह, शाम खुशगवार है
मैं बरामदे में पुरानी खाट पर लेटा था
बिजली गुल थी बहुत देर से पूरे शहर की
और घर के अंदर कोई छोटा दीया भी नहीं जला था
बूँदों की शोर में खोया था मैं
पानी की बड़ी बूँद छत से गिरती थी मेरे ऊपर
ज़रूर दूर कहीं ऊँचे आसमान में
ये बूँदें नीचे आती होंगी तुम्हें छूकर
हलकी रौशनी रोशनदान से छनकर आ रही थी
मेरा ध्यान मेज पर रखी तेरी तस्वीर पर चला गया
पुरानी थी पर ऐसा लगा जैसे कल की ही बात हो
तन्हाई भरी शाम में तेरा ख़याल दिल मेरा जला गया
मैं उठ कर कमरे में गया और लैंप जला ली
आलमारी खोली और वो पुरानी लाल वाली डायरी निकाली
कभी पन्ने पलटता तो कभी खिड़की से झाँकता
अंदर तेरी यादों का साया बाहर रात की चादर काली
संग बिताये लम्हों के एहसासात क़ैद थे पन्नों में
कितना ख़ूबसूरत फ़साना अपना साथ गुज़रा जमाना था
कभी मिले ख़ुदा तो उससे पूछूंगा मैं
ज़िन्दगी तो शुरू की थी अभी, अभी क्यों तुम्हें जाना था?
बैठा ही रहूँ
तेरे इस झरने के नीचे
और तुम बरसाते जाओ
शांति जल
वरना कहाँ मन लगे
ये दुनिया तेरी जंगल
कैसे-कैसे पेड़ यहाँ
और कैसे-कैसे फल
घर-घर हैं ये पेड़ लगे
लम्बे हैं पर छाँव नहीं देते
घने पर हवा नहीं
फलों में इनके विष
और छालों पे कांटे
जाने कैसी जलवायु बदली
बीज ही सारे ख़राब हो गए!
लोग कहते हैं
विचार बीज हैं
कर्म जिनके फल
और सोचता हूँ तो लगता है
चरित्र ही वृक्ष है
प्रेम उसकी छाया
व्यवहार छाल
और वाणी बयार
और बात करें जलवायु की तो
जल गुरुजनों की शिक्षा और अनुशाषन
और वायु वो सारी चीजें
मन जिनमे उलझा रहता दिन भर
और सच तो ये है कि
जलवायु करते हैं असर बीजों पर
खुलकर उड़ने न दिया, पिघलकर बहने न दिया
तेरी जुल्फ़ों के साये में ज़िन्दगी मेरी यूँ बीत ही जाती
मेरी बेताबी ने मगर एक जगह मुझे ठहरने न दिया
जुनूँ ही था जो मारा-मारा फिरता रहा दर-ब-दर
घर की चिंताओं ने चैन से घर पर रहने न दिया
शहर की रौशनी ने मगर मुझे गाँव का रहने न दिया
जिस राह चल रहा हूँ उस पर मेरी मंज़िल तो नहीं
कुछ भूख ने, कुछ डर ने अलग राह चलने न दिया
हर सुबह दफ़्तर जाने की ढूंढता हूँ मैं वजह
चाहता तो हूँ, हसरतों ने मगर कभी रुकने न दिया
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