मेरी ज़िन्दगी के तमाम ग़मों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका

न धूप भरी ज़मीं
न सूरज भरा आसमां
न सुकूँ के दिन-रात
न तेरी चाहतों का जहां
तू चली तो मेरे संग हमसफ़र
मगर उन राहों की मुश्किलो के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका

मैं तो उड़ता रहा हूँ बस
अपने ख़्वाबों की खातिर
तेरे भी तो ख्वाब होंगे
कैसे भूल गया मैं आखिर
तुमने तो ऊँची परवाज़ दी मुझे
पर बाँधने वाले कुछ रिश्तों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका

खुद रही है तू क़ैद में एक
और मुझे आज़ाद किया है
सब कुछ अपना छोड़ कर
मेरा जहां आबाद किया है
तूने क्या माँगा था मैं सोचता रहा
मगर मेरे हज़ार झूठे वादों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका
मेरी ज़िन्दगी के तमाम ग़मों के सिवा
मेरी जां तुझे मैं कुछ और दे न सका



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