सरफिरा आदमी

अभी कुछ रोज़ पहले ही
मैं मिला एक आदमी से
बड़ा सरफिरा सा इंसान था
रुक कर उसने सलाम किया तो
मैंने उससे उसका हाल-चाल पूछ लिया 
कहने लगा कि क्या बताऊँ ज़नाब
गोल-गोल घुमा रही है ज़िन्दगी
जहाँ से शुरू की थी ज़िन्दगी मैंने
घूम-फिर के उसी जगह पे खड़ा हूँ

मुझे हैरान देख फिर आगे कहने लगा 
बचपन में बड़ी बेफ़िक्री थी, सुकून था
वक़्त ही वक़्त था 
इन सब को खर्च कर दिया मैंने 
उनके बदले तालीम ली और इल्म हासिल किया
इल्म की बदौलत काम के लायक बना
उससे रोटी मिली, शोहरत मिली
लेकिन फ़िक्रें बढ़ीं और साथ में मशक़्क़त भी
काम में सारा वक़्त खर्च होता गया
बचा खुचा सुकून लुटा कर
दौलत जमा करने लगा

और आज जब दौलत है मेरे पास
तो बाँट रहा हूँ उसे मजलूमों में
दिल इससे सुकून पाने लगा है
और मशरूफ़ियत बे-इन्तहा बढ़ गयी है
तो दिल फुर्सत के रात दिन ढूँढने लगा है 
वक़्त ढूँढने लगा है, सुकून ढूँढने लगा है 
आज इंतज़ार है उस कल का 
जिस रोज़ काम से छूट चूका होऊँगा
फिर तो वक़्त ही वक़्त होगा
सुकून ही सुकून होगा
वही बेफ़िक्री का आलम होगा

पर हक़ीक़त तो ये है ज़नाब कि
वहीं से तो शुरु की थी मैंने ज़िन्दगी
पर जो ज़िन्दगी के तोहफे मिले थे
उन्हें दुनिया बनाने में खर्च दी
और अब उस दुनिया को छोड़ के
उन्हीं तोहफों का ख़्वाब देखता हूँ
क्या कहूँ जहाँ से चला था
वहीं पहुँच रहा हूँ
तो कहिये ज़नाब क्या ज़िन्दगी जी मैंने

मैंने संजीदा होकर हाँ में हाँ मिला दी
उसने फिर सलाम किया और चला गया
वाकई अजीब सिरफिरा आदमी था वो
मैं बड़ी देर तक खड़े खड़े सोचता रहा
एक सरफिरे शायर ने ठीक ही कहा है
कि ये दुनिया तो जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिटटी है, खो जाए तो सोना है 

दो दुनिया

क्या मैं वहाँ रहूँ जहाँ मैं रहना चाहता हूँ
या वहाँ जहाँ मुझे होना चाहिए ?
क्या मैं वो करूँ जो मैं करना चाहता हूँ
या वो जो मुझे करना चाहिए ?
ये सवाल अहम् हैं या
इनकी कोई अहमियत नहीं ?

यहाँ दो दुनिया है, दो जीवन
जिनके बीच मैं झूलता रहता हूँ
यथार्थ की धरती पे एक संघर्षों से भरा
वो दुनिया जहाँ शायद मैं होना ही नहीं चाहता
वो जीवन जिसे जीने की मेरी ख़्वाहिश ही नहीं
और दूसरा फैला हुआ ख़्वाबों का आसमान
जो है उम्मीदों के प्रकाश से जगमग
जिसमें हर चीज मुमक़िन है
जहाँ मैं होना चाहता हूँ
जिसे मैं जीना चाहता हूँ

क्या ये मुमक़िन है कि
ये दो दुनिया एक हो जाएँ
और इनके दरमियान जो
दीवार है वो गिर जाए ?
मैं ढूंढ़ रहा हूँ वो मुक़ाम जहाँ होने से
मेरे पैर तो टिके हों ज़मीन पर
पर मैं हाथ फैलाकर आसमां को छू लूँ 

बेहतर जीवन

अपने जीवन के यथार्थ से 
लड़ते लड़ते इंसान
कितना हो जाता है विवश
स्वप्न देखने को
वो स्वप्न जिन्हें वो पलकों पे
सजा के रखता है
जो उसके मन के आकाश में
इंद्रधनुषी रंग बिखेर देते हैं
और उसे ऐसी दुनिया, ऐसे जीवन में ले जाते हैं
जहाँ आज के अँधेरे न हों
और उन्हें जीने को वह चल पड़ता है
अपने घर, आँगन, गाँव को छोड़ कर

संघर्षों की सरिताएँ पार कर
कठिनाइयों के पर्वत लाँघ कर
एक दिन पा ही लेता है वह
उस दुनिया को, उस जीवन को
इसी दुनिया का स्वप्न तो देखा था उसने
इसी जीवन को जीने की तो उसने तमन्ना की थी
उसे पूरी ईमानदारी से वह जीने लगता है
पर जिसको जीते जीते वह
धीरे-धीरे खो जाता है पूरी तरह से
उस नयी दुनिया के तिलिस्म में

और फिर कभी एक लम्बे अरसे के बाद
जब उतरता है जादू तो
एहसास होता है उसे कि इस जीवन ने
ले लिया है उससे उसका सब कुछ
पर जिसे पाने की ख़ातिर चला था वो
दुनिया में उसे तो मिला ही नहीं
वो पीछे मुड़ कर देखता है तो नज़र आते हैं
कुछ डबडबाई आँखें, कुछ हिलते होंठ
और कुछ वापस बुलाते हाथ
वो वापस लौटना चाहता तो है मगर
पाता है स्वयं को एक दलदल में
जिससे वो जितना निकलने की कोशिश करे
उतना और ही धँसता जाता है

तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...