ऑफिस में एक आफ्टर-नून

उस आफ्टर-नून
जब अचानक मौसम
बदल सा गया था
फ्लोर पे एक कॉर्नर में
टेबल पर रखे लैपटॉप से
दो थकी आँखें निकलीं
और धीरे-धीरे
गिलास-विण्डो से
बाहर चलकर
आसमां में
तैरते बादलों के टुकड़ों पर
जाकर टिक गयीं

चेयर पे आगे-पीछे होते
उस इंसान को
वो नज़्म याद आ गई
जो कल रात
मुकम्मल होने से
पहले ही सो गई थी
और जिसे वो
घर पर ही छोड़ कर
सुबह-सुबह ऑफिस
आ गया था

फिर घड़ी पर
उसकी नज़रें गईं
और एक आह सी
निकल गई
अपनी अधूरी नज़्म से
मिलने के लिए
उसे अभी भी
कुछ घंटों का
इंतज़ार करना था



बड़े शहर में

बना लिया एक बड़ा सा घर
बड़े से एक शहर में
अपनों से दूर हो गया
पर मैं इस चक्कर में 
अपनों से दूर तो हुआ
ख़ुद से भी दूरी बढ़ी
ज़िन्दगी मेरी खुश थी पर
अपने पुराने घर में

वहाँ खुशियों का अम्बार था
संग पूरा परिवार था
हर पल था मस्ती का
हर दिन रविवार था
बड़े हुए विवश हुए
इधर-उधर बिखर गए
खो गया कहीं
वो जो सुकून था क़रार था 

बहता पानी

किसी बड़े
5-स्टार होटल के
रूफ़-टॉप
स्विमिंग पूल का
पानी होने से बेहतर
मैं पसंद करूँगा
कहीं
एक छोटे से
देहात में
एक छोटी सी नदी का
बहता पानी बन जाना 

तुम मुझे मिली

तुम मुझे मिली, मुझको ज़िन्दगी मिली
दूर ग़म हुए, हर ख़ुशी मिली
बादलों से चाँदनी खिली
बेनूर आँखों को रौशनी मिली

जो भी मिला वो हँस के मिला
हर शै से मेरी दोस्ती हुई
मैं और ही कहीं का हो के रह गया
तुम भी कहीं और ही चली

तू मुझमें गुम हुई, मैं तुझमे गम हुआ
चैन भी गया, होश भी गुम हुआ
मेरी धड़कनों में तुम खो गई
तेरी साँसों में मैं गुम हुआ

ख़ुदा से तुझे मैंने माँगा है
ज़िन्दगी मेरी गुलज़ार हो गई
बागों में फूल खिल गए
फ़िजा भी खुशगवार हो गई

हाथों में तेरा हाथ अब लिए
राहों में साथ साथ चल दिए
तेरी हिम्मत से हौसला मिला
शूल भी राह के फूल बन गए


हिंदी, तुम कहाँ हो !

सूर के पदों में
या तुलसी के चौपाईयों में
रहीम, कबीर, बिहारी के दोहों में
दिनकर, निराला, गुप्त, प्रसाद या
बच्चन की कविताओं में
हिंदी, तुझे ढूँढूँ कहाँ !

संदेह से घिर उठता हूँ
जब तेरे इतने रूपों में
तुझे देखता हूँ

दूरदर्शन की चर्चाओं में
या बॉलीवुड की सीमाओं में
या फिर राह चलते
आम हिंदुस्तानी की जुबां पे
हिंदी, तुम कहाँ हो !

क्या तुम ग़ज़लों में नहीं ?
क्या तुम नज़्मों में नहीं ?
तुम नहीं तो कौन है फिर !
तुम स्टेशन में नहीं ?
ट्रेन में भी नहीं ?
कमरे, कुर्सी, बाल्टी में भी नहीं ?

बनारस की जुबान हो
या लखनऊ, दिल्ली या मुंबई  की ?
भय में हो पर ख़ौफ़ में नहीं ?
आकाश में पर फलक़ में नहीं ?
चंद्र में तुम, महताब में नहीं ?
सूर्य में तुम, ख़ुर्शीदो-आफ़ताब में नहीं ?

पाठ्य-पुस्तकों में तुम भिन्न हो
दिन-भर की बातचीत में रंग कुछ और है
समाचार पत्रों में कुछ और ही
माना तुम मीर की नहीं, ग़ालिब की नहीं
पर तुम्हें क्या कबीर की कहूँ ?
सूर और तुलसी की ?
और गुलज़ार की भी ?
या फिर सिर्फ पंत, निराला, प्रसाद,
दिनकर, गुप्त और बच्चन की ?

तुम गंगा हो
निश्चय ही इस राष्ट्र की पहचान हो
संस्कृत के हिमालय से निकली
मैदानों में बह चली
कई नदियाँ तुझसे जुड़ीं
और कई तुझसे निकलीं
समा लिया तुमने सबको
समभाव से
सबको साथ लेकर
निरंतर बहती जा रही हो
तेरे पानी के रंग कई
पर सबमे है
वही मिठास
और एक समान ही
बुझाती हो तुम
हर प्यासे की प्यास

तेरी मूल धारा में
अन्य धाराओं का समावेश
और सबका सामंजस्य
ही तुझको महान बनाता है
देश की संस्कृति की तरह ही 

बाबाजी बाबाजी

गिर कर उठ कर
अटक भटक कर
दर पर आ गया
घर पर आ गया

लायक बना दो मुझे
कि देख पाऊँ तुझे
दूजा अब कोई काम नहीं
तेरे सिवा कोई नाम नहीं

जिस हाल रखोगे रहूँगा
ले जाओगे जहाँ जाऊँगा
जो चाहा वो तो दे दिया
क्या रहा जो मांगूँगा

परम पिता तो तुम्हीं हो
बालक दास तुम्हारा मैं
चरणों से दूर मत करना
तुम बिन जी न पाउँगा

तेरी धार में अब बहता फिरूँ
बाबाजी बाबाजी कहता फिरूँ 

मेरे राघव मेरे राम

ओ मेरे राघव मेरे राम 
जीवन मेरा तेरे नाम 

बस इतना कह दो मुझसे 
आऊँ कैसे मैं तेरे काम 

तेरी राह पे चलते चलते 
पा जाऊँगा अपना मुक़ाम 

चरणों में रहने दो मुझे 
दुःख चाहे दे दो तमाम 

फिसल जाऊँ जब दुनिया में 
बाहें मेरी तू लेना थाम 

स्लोप पर हूँ

मैं कहाँ हूँ !
किस राह से
किधर जा रहा हूँ !

कोई खींचता है मुझे
तो कोई फेंकता है
तो कोई धकेलता है

एक स्लोप पर हूँ
जाने मैं कब से
ख़ुद से तो अब
रुक पाना मुमकिन नहीं 

ख़ुदा के घर चलो

ज़िन्दगी कहीं मुड़ी
मैं कहीं और मुड़ गया
ख़ुद से ही बिछड़ गया
दुनिया से जब जुड़ गया

किस ओर मुड़ूँ मैं
किस ओर चलूँ मैं
है प्रश्न वही फिर
सामने मेरे खड़ा

ये मेरी आँखों का धुँआ है
या चराग बुझ रहे कहीं
चलो ख़ुदा के घर चलो
बाहर तंग अँधेरा है 

क्या कहूँ !

तुम से दिल की बात क्या कहूँ !
कैसे हैं मेरे जज़्बात, क्या कहूँ !

मुद्दत बाद मिले हो तुम
यहॉं कैसे थे हालात, क्या कहूँ !

कैसे तेरे आने की आस में
कटे न दिन रात, क्या कहूँ !

मौसम आते जाते रहते पर
थमे न बरसात क्या कहूँ !

वादे तेरे, तेरी कसमें
हैं बस बीती बात, क्या कहूँ !


उलझन

दिल को समझाता हूँ
ख़ुद को बहलाता हूँ
मंज़िल तक नज़र नहीं
लेकिन चलता जाता हूँ

आँखों में धुँआ सा है
रस्ता भी सुना सा है
मन क्या ढूँढ़ रहा है
कुछ नहीं अपना सा है

सफ़र ये जो ज़िन्दगी है
कब से भरमा रही है
किस ज़ानिब मुझे जाना है
कहाँ ले के जा रही है 

सफ़र जो थोड़ा मुश्किल लगे

बैठ गया क्यों हार कर
राही तू यूँ राहगुजर पर
चल उठ कुछ ईरादा कर
नज़र कर अपनी मंज़िल पर

कदम क्यों तेरे डगमगाए
चाहे लाख मुसीबतें आएं
संदेह के बादल मंडराएं
आत्म-विश्वास कम न हो पाए

राह जो आगे बंद मिले
चिंता क्यों मन में पले
दुगुने कर ले हौसले
बंद सारी राहें खुलें

सफ़र जो थोड़ा मुश्किल लगे
बुझा-बुझा क्यों दिल लगे
मौजें जो क़ातिल लगें
और दूर तुझसे साहिल लगे

ख़ुद से कर ले अब फैसला
कम न होगा कभी हौसला
चलता रहे चाहे अकेला
या संग चले कोई काफ़िला 

ख़ुद को बना हमसफ़र

ख़ुद से भाग कर कहाँ जाएगा मुसाफ़िर
तन्हाईयों में तू वापस आएगा मुसाफ़िर

यहाँ जो चैन है, सुकुनो-क़रार है
भटकेगा कहाँ ऐ बेक़रार मुसाफ़िर 

थक-हार कर सफ़र में बैठेगा जब कभी
ये डगर तुमको याद आएँगे मुसाफ़िर

काफ़िले निकल जाएँगे साथ तेरा छोड़कर
बस एक यही रिश्ता रह जाएगा मुसाफ़िर

गरम रेत पर कब तक चल पाएगा अकेला
ख़ुद को बना ले अपना हमसफ़र मुसाफ़िर 

एक साल और बीता

जीवन का एक साल और बीत गया
वक़्त मेरी लम्बी कर अतीत गया
संघर्ष का क्रम मगर जारी रहा
धूप-छाँव में द्वंद्व भारी रहा
पाने-खोने का चलता रहा सिलसिला
मौसम बदलते रहे रुका नहीं काफ़िला

सफ़र का ये पड़ाव भी निकल गया
एक  और दरिया सागर से मिल गया
रुख़सार से नक़ाब थोड़ा और हट गया
साया ज़िन्दगी का कुछ और सिमट गया
वाक़िफ़ी इससे थोड़ी और पुरानी हो गई
राहें कुछ और अपनी पहचानी हो गईं

भँवर मगर और गहराता चला गया
ख़ुद को मैं और कमजोर पाता चला गया
जीत-हार से ख़ुद को ऊपर उठाता चला गया
मैं जीवन का साथ बस निभाता चला गया

अपने दामन में अब यादें भर रहा हूँ
आगे सफ़र की अभी तैयारी कर रहा हूँ
अभी ऐसे जाने कितने और मुक़ाम आएँगे
हर बार हम यूँ ही आज़माये जाएँगे 

ज़िन्दगी थोड़ी मुझे भी चाहिए

इस शहर में अगर ज़िन्दगी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए
बाँकी हवाओं में गर ताजगी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए

दौर ये तूफां का है, चराग बुझे हुए हैं सारे
आज सितारों में गर रौशनी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए

हर तरफ शोर कितना, चीखों की आवाज़ें हैं 
बची कहीं गर खामोशी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए

सहरे की धूप में चल चल कर थक चुका हूँ
कहीं बादलों में गर नमी है तो थोड़ी मुझे भी चाहिए 

चलते रहना है

बैठ गए यूँ ही थोड़ा सा लेने को दम
पिछड़ गए हैं माना, पर हारे नहीं हैं हम

चलते चलते राहों में थोड़े भटक से गए
मुड़ जाएँगे फिर से सही दिशा में कदम

हौसला है पा लेंगे मंज़िल को एक दिन
बदल जाने दो अगर बदलते हैं मौसम

पड़ाव को सफ़र की इंतेहा समझ बैठे
हरियाली देख हो गए थे थोड़े खुशफ़हम

चलो चलें फिर से कि काफ़िला चल पड़ा
शबो-दिन चलना है मुसाफ़िर का करम  

मौला मेरी अरज़ सुनो

एक नियाज़ी की गुहार पर
मौला अब न इंकार कर
मत फेर नज़रें इधर से
कब से खड़ा तेरे द्वार पर

छोटी सी एक फ़रियाद है
दुखियारे मन की आस है
एक तेरा दामन मेहफ़ूज़
बस तेरा ही विश्वास है

बन्दे को अब ना निराश कर
जी रहा हूँ तेरी आस पर
तेरा ही नाम बसा है मौला
मेरी एक-एक साँस पर                            

तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...