उलझन

दिल को समझाता हूँ
ख़ुद को बहलाता हूँ
मंज़िल तक नज़र नहीं
लेकिन चलता जाता हूँ

आँखों में धुँआ सा है
रस्ता भी सूना सा है
मन क्या ढूँढ़ रहा है
कुछ नहीं अपना सा है

सफ़र ये जो ज़िन्दगी है
कब से भरमा रही है
किस ज़ानिब मुझे जाना है
कहाँ ले के जा रही है 

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