सूर के पदों में
या तुलसी के चौपाईयों में
रहीम, कबीर, बिहारी के दोहों में
दिनकर, निराला, गुप्त, प्रसाद या
बच्चन की कविताओं में
हिंदी, तुझे ढूँढूँ कहाँ !
संदेह से घिर उठता हूँ
जब तेरे इतने रूपों में
तुझे देखता हूँ
दूरदर्शन की चर्चाओं में
या बॉलीवुड की सीमाओं में
या फिर राह चलते
आम हिंदुस्तानी की जुबां पे
हिंदी, तुम कहाँ हो !
क्या तुम ग़ज़लों में नहीं ?
क्या तुम नज़्मों में नहीं ?
तुम नहीं तो कौन है फिर !
तुम स्टेशन में नहीं ?
ट्रेन में भी नहीं ?
कमरे, कुर्सी, बाल्टी में भी नहीं ?
बनारस की जुबान हो
या लखनऊ, दिल्ली या मुंबई की ?
भय में हो पर ख़ौफ़ में नहीं ?
आकाश में पर फलक़ में नहीं ?
चंद्र में तुम, महताब में नहीं ?
सूर्य में तुम, ख़ुर्शीदो-आफ़ताब में नहीं ?
पाठ्य-पुस्तकों में तुम भिन्न हो
दिन-भर की बातचीत में रंग कुछ और है
समाचार पत्रों में कुछ और ही
माना तुम मीर की नहीं, ग़ालिब की नहीं
पर तुम्हें क्या कबीर की कहूँ ?
सूर और तुलसी की ?
और गुलज़ार की भी ?
या फिर सिर्फ पंत, निराला, प्रसाद,
दिनकर, गुप्त और बच्चन की ?
तुम गंगा हो
निश्चय ही इस राष्ट्र की पहचान हो
संस्कृत के हिमालय से निकली
मैदानों में बह चली
कई नदियाँ तुझसे जुड़ीं
और कई तुझसे निकलीं
समा लिया तुमने सबको
समभाव से
सबको साथ लेकर
निरंतर बहती जा रही हो
तेरे पानी के रंग कई
पर सबमे है
वही मिठास
और एक समान ही
बुझाती हो तुम
हर प्यासे की प्यास
तेरी मूल धारा में
अन्य धाराओं का समावेश
और सबका सामंजस्य
ही तुझको महान बनाता है
देश की संस्कृति की तरह ही
या तुलसी के चौपाईयों में
रहीम, कबीर, बिहारी के दोहों में
दिनकर, निराला, गुप्त, प्रसाद या
बच्चन की कविताओं में
हिंदी, तुझे ढूँढूँ कहाँ !
संदेह से घिर उठता हूँ
जब तेरे इतने रूपों में
तुझे देखता हूँ
दूरदर्शन की चर्चाओं में
या बॉलीवुड की सीमाओं में
या फिर राह चलते
आम हिंदुस्तानी की जुबां पे
हिंदी, तुम कहाँ हो !
क्या तुम ग़ज़लों में नहीं ?
क्या तुम नज़्मों में नहीं ?
तुम नहीं तो कौन है फिर !
तुम स्टेशन में नहीं ?
ट्रेन में भी नहीं ?
कमरे, कुर्सी, बाल्टी में भी नहीं ?
बनारस की जुबान हो
या लखनऊ, दिल्ली या मुंबई की ?
भय में हो पर ख़ौफ़ में नहीं ?
आकाश में पर फलक़ में नहीं ?
चंद्र में तुम, महताब में नहीं ?
सूर्य में तुम, ख़ुर्शीदो-आफ़ताब में नहीं ?
पाठ्य-पुस्तकों में तुम भिन्न हो
दिन-भर की बातचीत में रंग कुछ और है
समाचार पत्रों में कुछ और ही
माना तुम मीर की नहीं, ग़ालिब की नहीं
पर तुम्हें क्या कबीर की कहूँ ?
सूर और तुलसी की ?
और गुलज़ार की भी ?
या फिर सिर्फ पंत, निराला, प्रसाद,
दिनकर, गुप्त और बच्चन की ?
तुम गंगा हो
निश्चय ही इस राष्ट्र की पहचान हो
संस्कृत के हिमालय से निकली
मैदानों में बह चली
कई नदियाँ तुझसे जुड़ीं
और कई तुझसे निकलीं
समा लिया तुमने सबको
समभाव से
सबको साथ लेकर
निरंतर बहती जा रही हो
तेरे पानी के रंग कई
पर सबमे है
वही मिठास
और एक समान ही
बुझाती हो तुम
हर प्यासे की प्यास
तेरी मूल धारा में
अन्य धाराओं का समावेश
और सबका सामंजस्य
ही तुझको महान बनाता है
देश की संस्कृति की तरह ही
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