दो दुनिया

क्या मैं वहाँ रहूँ जहाँ मैं रहना चाहता हूँ
या वहाँ जहाँ मुझे होना चाहिए ?
क्या मैं वो करूँ जो मैं करना चाहता हूँ
या वो जो मुझे करना चाहिए ?
ये सवाल अहम् हैं या
इनकी कोई अहमियत नहीं ?

यहाँ दो दुनिया है, दो जीवन
जिनके बीच मैं झूलता रहता हूँ
यथार्थ की धरती पे एक संघर्षों से भरा
वो दुनिया जहाँ शायद मैं होना ही नहीं चाहता
वो जीवन जिसे जीने की मेरी ख़्वाहिश ही नहीं
और दूसरा फैला हुआ ख़्वाबों का आसमान
जो है उम्मीदों के प्रकाश से जगमग
जिसमें हर चीज मुमक़िन है
जहाँ मैं होना चाहता हूँ
जिसे मैं जीना चाहता हूँ

क्या ये मुमक़िन है कि
ये दो दुनिया एक हो जाएँ
और इनके दरमियान जो
दीवार है वो गिर जाए ?
मैं ढूंढ़ रहा हूँ वो मुक़ाम जहाँ होने से
मेरे पैर तो टिके हों ज़मीन पर
पर मैं हाथ फैलाकर आसमां को छू लूँ 

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