बेहतर जीवन

अपने जीवन के यथार्थ से 
लड़ते लड़ते इंसान
कितना हो जाता है विवश
स्वप्न देखने को
वो स्वप्न जिन्हें वो पलकों पे
सजा के रखता है
जो उसके मन के आकाश में
इंद्रधनुषी रंग बिखेर देते हैं
और उसे ऐसी दुनिया, ऐसे जीवन में ले जाते हैं
जहाँ आज के अँधेरे न हों
और उन्हें जीने को वह चल पड़ता है
अपने घर, आँगन, गाँव को छोड़ कर

संघर्षों की सरिताएँ पार कर
कठिनाइयों के पर्वत लाँघ कर
एक दिन पा ही लेता है वह
उस दुनिया को, उस जीवन को
इसी दुनिया का स्वप्न तो देखा था उसने
इसी जीवन को जीने की तो उसने तमन्ना की थी
उसे पूरी ईमानदारी से वह जीने लगता है
पर जिसको जीते जीते वह
धीरे-धीरे खो जाता है पूरी तरह से
उस नयी दुनिया के तिलिस्म में

और फिर कभी एक लम्बे अरसे के बाद
जब उतरता है जादू तो
एहसास होता है उसे कि इस जीवन ने
ले लिया है उससे उसका सब कुछ
पर जिसे पाने की ख़ातिर चला था वो
दुनिया में उसे तो मिला ही नहीं
वो पीछे मुड़ कर देखता है तो नज़र आते हैं
कुछ डबडबाई आँखें, कुछ हिलते होंठ
और कुछ वापस बुलाते हाथ
वो वापस लौटना चाहता तो है मगर
पाता है स्वयं को एक दलदल में
जिससे वो जितना निकलने की कोशिश करे
उतना और ही धँसता जाता है

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