चल रहा हूँ मैं
न जाने पर किधर
सपनों की चमक
दोनों आँखों में भर

राहें ठग रही हैं
थमता नहीं सफ़र
मंज़िल है भी क्या
कोई कहीं किधर ?

किस आस पर चलूँ
किस राह पग धरूँ
एक खेल ही तो है
देखूँ चाहे जिधर

हर कोई चल रहा
भागता फिर रहा
तिश्नगी मन की
किसकी मिटी मगर

लाखों में कोई एक
खेल के परे गया
चला वो फ़क़ीर हो
कर धुंआ सब फ़िकर


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