जीवन की धार बहती रहे
अबाध मैं भी संग बहूँ
बाधाएँ न थाम सकें
किसी के रोके से ना रुकूँ
पाषाणों से टकराऊँ
राहों में जो मिले खड़े
कंठों में उतरूँ ऐसे
फिर कोई प्यासा न रहे
पर्वत पे हूँ उत्श्रृंखल
विनय का परन्तु भाव रहे
बस्तियों से जब निकलूँ
मर्यादित मदिर प्रवाह रहे
ढलानों में सिमट जाऊँ
मैदानों में फैलाव मिले
समर्पण सागर में अंतिम
फिर न कोई चाह रहे
अबाध मैं भी संग बहूँ
बाधाएँ न थाम सकें
किसी के रोके से ना रुकूँ
पाषाणों से टकराऊँ
राहों में जो मिले खड़े
कंठों में उतरूँ ऐसे
फिर कोई प्यासा न रहे
पर्वत पे हूँ उत्श्रृंखल
विनय का परन्तु भाव रहे
बस्तियों से जब निकलूँ
मर्यादित मदिर प्रवाह रहे
ढलानों में सिमट जाऊँ
मैदानों में फैलाव मिले
समर्पण सागर में अंतिम
फिर न कोई चाह रहे
No comments:
Post a Comment