आइडेंटिटी क्राइसिस - बुल्ला कि जाना मैं कौन !

मैं नहीं हूँ, सत् चित् आनन्द  है, और सर्वत्र है। 

इससे बड़ी कोई डिस्कवरी हो नहीं सकती। आग, बिजली, ग्रैविटेशन, रिलेटिविटी से बड़ी। सबसे बड़ी। और इसके लिए न कोई लैब चाहिए और न कोई टेस्ट-ट्यूब।  

डुआलिटी के दो प्रश्नों से आगे निकलने के बाद इस बात की अनुभूति होने लगती है। पहला प्रश्न तो ये होता है कि मैं ये माइंड-बॉडी या कंडिशन्ड पर्सनालिटी हूँ या फिर कोई और, जैसे कि आत्मा या कॉन्सियसनेस । दूसरा प्रश्न ये कि मैं जो भी हूँ वो दूसरों से और संसार से कैसे कनेक्टेड है, यानी कि यह एक है या अनेक ?  

आइडेंटिटी क्राइसिस, मतलब मैं कौन हूँ, कोई आज की नहीं, बल्कि एक बहुत पुरानी बीमारी है। तभी हमारे दर्शन और ग्रन्थ इसी से डील करते हैं। वेदांत या उपनिषदों के ज्ञान की योग-तंत्र के विज्ञान की सहायता से अनुभूति की जा सकती है। योग के निरंतर अभ्यास से जब मन शांत होने लगता है तो धीरे-धीरे अपने स्वरुप का आभास होने लगता है।  

योग 

यम-नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब चित्त की वृत्तियाँ शांत होने लगती हैं तो चित्त अपने स्वरुप में स्थित होने लगता है और फिर वहीं स्थिर होकर सुखी रहता है। 

उपनिषद् 

तभी तो हमारे ऋषियों ने एक उपनिषद् का नाम ही केन-उपनिषद् रख दिया था जिसने ये प्रश्न रखा कि केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।  

यन्मनसा न मनुते येनाहुर मनो मतम 

फिर शंकर ने कहा चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम।  ईशोपनिषद ने कहा पूर्णम अदः पूर्णम इदं,  और ईशावास्यम इदं सर्वं। फिर योग ने इस कैवल्य तक पहुँचने का रास्ता बताया। 

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