शांत होना

सच पूछें तो असल मायनों में सबसे बड़ी सफलता चित्त का शांत हो जाना है। इस क्षण और अगले क्षण और आने वाले हर क्षण अगर आप शांत हैं तो आप जीवन में सफल हैं। आपकी उपलब्धियाँ चाहे जो भी हों या बिल्कुल ना हों और आपकी परिस्थितियाँ अनुकूल हों या प्रतिकूल, अगर आप शांत हैं तो आप सफल हैं। तमाम उपलब्धियों के बावजूद अगर आप अशांत हैं तो आप सफल होकर भी असफल ही हैं।  

अगर शांत होना है तो शांत होना पड़ेगा।  बिना शांत हुए शांत हुआ नहीं जा सकता है। अभी और यहीं शांत होना पड़ेगा, भविष्य में नहीं। प्रयास से नहीं, अप्रयास से। सारे क़यास, प्रयास और अभ्यास से मुक्त। शांत होने का प्रयास भी अशांति का कारण बन जाता है।  

इसके लिए सहज और सरल होना पड़ेगा। हर पल बिना प्रयास के, स्वाभाविक रूप से सहज होना पड़ेगा। बिल्कुल बेपरवाह, बिल्कुल बेफ़िक्र। कोई चिंता नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई स्वार्थ नहीं। जो हो रहा है, वह हो रहा है क्यूंकि वही होना था, उसे बस होने देना है, इस होने के बीच में खुद को नहीं लाना है। न उसे करने की इच्छा और न उसे न करने की इच्छा। न कुछ पाने की इच्छा और न कुछ छोड़ने की इच्छा। अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई चाह नहीं। जो रहा है, वही होना था, क्यूंकि वो होना ज़रूरी था। जो जैसा है उसे वैसा ही होना था और यही सबसे सुन्दर है। कुछ बदलने की ज़रूरत नहीं है। न किसी प्रयास की ज़रूरत है और न किसी प्रतिरोध की। 

समंदर की लहरों की भाँति मन हमेशा हलचल है। यह शांत होना नहीं चाहता और इसे जबरदस्ती शांत किया भी नहीं जा सकता है। पर शांत समंदर की तरह हमारा भी एक एक तल है जो बिलकुल शांत है, उसमे कोई हलचल नहीं। वहाँ ठहर कर होश से सब कुछ होते हुए देखते रहना चाहिए। होश बढ़ते-बढ़ते धीरे-धीरे हलचल कम होने लगती है और कहीं दूर होते हुए प्रतीत होती है। पहले हलचल है और उसके साथ बेहोशी है, फिर हलचल है और होश है और फिर होश ही होश है, बिना किसी हलचल के। 

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