साधो सहज समाधि भली

साधो सहज समाधि भली 

साधो सहज समाधि भली 


जंतर-मंतर तू तो करदा 

मस्जद-मंदर तू तो फिरदा 

हलचल इतनी फिर क्यों अंदर 

चल दे अब तू होश गली 

साधो सहज समाधि भली 

साधो सहज समाधि भली


पूजा-सज्दा तू तो करदा 

काशी-क़ाबा तू तो फिरदा 

मन में दुःख इतना क्यों फिर 

चल दे अब तू प्रेम गली 

साधो सहज समाधि भली 

साधो सहज समाधि भली  


बाहर-बाहर मारा फिरदा 

सद्गुरु की तू एक न सुनदा 

बाहर की माया अब तज तू 

चल दे अब अंदर की गली 

चल दे अपने घर की गली 

साधो सहज समाधि भली 

साधो सहज समाधि भली  

आइडेंटिटी क्राइसिस - बुल्ला कि जाना मैं कौन !

मैं नहीं हूँ, सत् चित् आनन्द  है, और सर्वत्र है। 

इससे बड़ी कोई डिस्कवरी हो नहीं सकती। आग, बिजली, ग्रैविटेशन, रिलेटिविटी से बड़ी। सबसे बड़ी। और इसके लिए न कोई लैब चाहिए और न कोई टेस्ट-ट्यूब।  

डुआलिटी के दो प्रश्नों से आगे निकलने के बाद इस बात की अनुभूति होने लगती है। पहला प्रश्न तो ये होता है कि मैं ये माइंड-बॉडी या कंडिशन्ड पर्सनालिटी हूँ या फिर कोई और, जैसे कि आत्मा या कॉन्सियसनेस । दूसरा प्रश्न ये कि मैं जो भी हूँ वो दूसरों से और संसार से कैसे कनेक्टेड है, यानी कि यह एक है या अनेक ?  

आइडेंटिटी क्राइसिस, मतलब मैं कौन हूँ, कोई आज की नहीं, बल्कि एक बहुत पुरानी बीमारी है। तभी हमारे दर्शन और ग्रन्थ इसी से डील करते हैं। वेदांत या उपनिषदों के ज्ञान की योग-तंत्र के विज्ञान की सहायता से अनुभूति की जा सकती है। योग के निरंतर अभ्यास से जब मन शांत होने लगता है तो धीरे-धीरे अपने स्वरुप का आभास होने लगता है।  

योग 

यम-नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के निरंतर अभ्यास से जब चित्त की वृत्तियाँ शांत होने लगती हैं तो चित्त अपने स्वरुप में स्थित होने लगता है और फिर वहीं स्थिर होकर सुखी रहता है। 

उपनिषद् 

तभी तो हमारे ऋषियों ने एक उपनिषद् का नाम ही केन-उपनिषद् रख दिया था जिसने ये प्रश्न रखा कि केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।  

यन्मनसा न मनुते येनाहुर मनो मतम 

फिर शंकर ने कहा चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम।  ईशोपनिषद ने कहा पूर्णम अदः पूर्णम इदं,  और ईशावास्यम इदं सर्वं। फिर योग ने इस कैवल्य तक पहुँचने का रास्ता बताया। 

रावण यानि "करना", राम यानि बस "होना"

रावण यानि "करना", राम यानि बस "होना" 

मन से रावण जो निकाले राम उसके मन में है। रावण यानि "करना" यानि सारी व्यर्थ की भाग-दौड़ और क़वायद, अतीत की निराशाएँ और भविष्य की चिंताएं। राम यानि बस "होना" यानि शान्त और मौन होकर पूर्ण सहजता से अपने में अभी और यहीं में स्थित हो जाना।  

करना जैसे क़ैदे-ज़ीस्त कोई, होना सारे ग़म से नजात जैसे। करना जैसे सीने में आग, सर पे जुनूँ, बेताबी, बेचैनी, छटपटाहट, जुस्तुजू।  होना लेकिन जैसे इन सब का न होना, जैसे चांदनी रात, उस रात का सुकूँ, घास में ठहरी शबनम की बूँद।  

रावण यानि दौड़ता-भागता मन यानि "मैं"। मैं का मरना यानि राम। इसी मरने के बारे में गोरखनाथ जी ने कहा "मरो हे जोगी मरो, मरो मरण है मीठा" और कबीरदास जी ने कहा "जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनन्द, कब मरिहुँ कब भेटिहुँ पूरण परमानन्द"। राम यानि असीम, निराकार पूरण परमानन्द। मन से रावण जो निकाले राम उसके मन में है। 

शांत होना

सच पूछें तो असल मायनों में सबसे बड़ी सफलता चित्त का शांत हो जाना है। इस क्षण और अगले क्षण और आने वाले हर क्षण अगर आप शांत हैं तो आप जीवन में सफल हैं। आपकी उपलब्धियाँ चाहे जो भी हों या बिल्कुल ना हों और आपकी परिस्थितियाँ अनुकूल हों या प्रतिकूल, अगर आप शांत हैं तो आप सफल हैं। तमाम उपलब्धियों के बावजूद अगर आप अशांत हैं तो आप सफल होकर भी असफल ही हैं।  

अगर शांत होना है तो शांत होना पड़ेगा।  बिना शांत हुए शांत हुआ नहीं जा सकता है। अभी और यहीं शांत होना पड़ेगा, भविष्य में नहीं। प्रयास से नहीं, अप्रयास से। सारे क़यास, प्रयास और अभ्यास से मुक्त। शांत होने का प्रयास भी अशांति का कारण बन जाता है।  

इसके लिए सहज और सरल होना पड़ेगा। हर पल बिना प्रयास के, स्वाभाविक रूप से सहज होना पड़ेगा। बिल्कुल बेपरवाह, बिल्कुल बेफ़िक्र। कोई चिंता नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई स्वार्थ नहीं। जो हो रहा है, वह हो रहा है क्यूंकि वही होना था, उसे बस होने देना है, इस होने के बीच में खुद को नहीं लाना है। न उसे करने की इच्छा और न उसे न करने की इच्छा। न कुछ पाने की इच्छा और न कुछ छोड़ने की इच्छा। अपनी कोई मर्ज़ी नहीं, कोई चाह नहीं। जो रहा है, वही होना था, क्यूंकि वो होना ज़रूरी था। जो जैसा है उसे वैसा ही होना था और यही सबसे सुन्दर है। कुछ बदलने की ज़रूरत नहीं है। न किसी प्रयास की ज़रूरत है और न किसी प्रतिरोध की। 

समंदर की लहरों की भाँति मन हमेशा हलचल है। यह शांत होना नहीं चाहता और इसे जबरदस्ती शांत किया भी नहीं जा सकता है। पर शांत समंदर की तरह हमारा भी एक एक तल है जो बिलकुल शांत है, उसमे कोई हलचल नहीं। वहाँ ठहर कर होश से सब कुछ होते हुए देखते रहना चाहिए। होश बढ़ते-बढ़ते धीरे-धीरे हलचल कम होने लगती है और कहीं दूर होते हुए प्रतीत होती है। पहले हलचल है और उसके साथ बेहोशी है, फिर हलचल है और होश है और फिर होश ही होश है, बिना किसी हलचल के। 

मैं किस चीज़ से भाग रहा हूँ ?

मैं किस चीज़ से भाग रहा हूँ ? हमारा एक दोस्त है। फ़ितरतन धारा के विरुद्ध बहने वाला। बेफ़िक्र, आज़ादी-पसंद और घुमक्कड़। कॉरपोरेट कल्चर कभी उसे रास...