सारी दुविधा, द्वंद्व, विषाद, संशय और प्रश्न अर्जुन के मन में है। दुर्योधन के मन में कोई दुविधा नहीं, कोई संशय नहीं। कृष्ण को भी कोई दुविधा नहीं है। अर्जुन की दशा हमारी दशा है। वह दुर्योधन की अवस्था को पार कर चुका है लेकिन अभी कृष्ण नहीं हुआ है। मनुष्य एक यात्रा पर है। यह दरअसल चेतना की यात्रा है। पशु से परमात्मा तक की यात्रा में मनुष्य एक पड़ाव है। मनुष्य यानि मन और मन यानि द्वंद्व, मन यानि संशय। अर्जुन हमारा प्रतिनिधि है। वह दुर्योधन की अवस्था को पार कर चुका है लेकिन विषाद से भरा हुआ है। गीता उसकी यात्रा है जिसमें कृष्ण उसके सारथि और मार्गदर्शक बनकर उसके साथ चल रहे हैं। कृष्ण एक ऊंचाई पर हैं जहाँ से वो अपनी बातें कर रहे हैं। उनका तल आत्मा का तल है। अर्जुन का तल शरीर का तल है, मन का तल है। अर्जुन को इस तल से उस शिखर तक की यात्रा करनी है जहाँ कृष्ण खड़े हैं। गीता एक यात्रा-गीत है। एक ऐसी यात्रा जो विषाद से शुरू होती है और मोक्ष पर समाप्त होती है। विषाद प्रथम अध्याय है। मोक्ष अंतिम अध्याय है। उसके आगे कुछ नहीं है। मोक्ष अर्जुन के तल का मिट जाना है।
कुछ लोग कहते हैं कि गीता के केंद्र में कर्म है। उनका मानना है कि कृष्ण सिर्फ कर्म की बात करते हैं और सिर्फ यही एक मार्ग है। कुछ लोग भक्ति, ध्यान और ज्ञान को भी अलग मार्ग मानते हैं जो अपने आप में पर्याप्त हैं। और कुछ सब के समन्वयय को ही सही मार्ग बताते हैं। मुझे लगता है कि गीता का ध्यान चित्त की अवस्था पर है और इसकी प्रमुख शिक्षा चित्त को शांत करने की है। गीता के अनुसार जीवन का उद्देश्य अपने अंतिम और सर्वोपरि सत्य को जानना है और शांत चित्त उसकी प्रथम आवश्यकता है।
कृष्ण कहते हैं कि उन्होंने हमेशा से दो मार्गों की बात की है - जिनका चित्त शुद्ध और मन शांत हो चुका है उनके लिए सांख्य योग और बाकियों के लिए कर्म योग। सांख्य योगियों के लिए कर्म की अनिवार्यता नहीं है, लेकिन वो स्वेच्छा से कर्म कर सकते हैं। कर्म योगियों के लिए कर्म अनिवार्य है, तब तक जब तक कि उनका चित्त शांत नहीं हो जाता है।
अर्जुन का ह्रदय विषाद, संशय और मोह से भरा हुआ है। उसके निर्णय करने की क्षमता और सही-गलत में चयन करने की शक्ति क्षीण हो गई है। चित्त अशांत और व्याकुल हो पड़ा है। कर्म करने वाले हाथ काँप रहे हैं। ऐसी दिशाहीन और दयनीय स्थिति में कृष्ण की बातें उसे रास्ता दिखाती हैं और कर्त्तव्य की दिशा में अभिमुख करती हैं। अर्जुन के रगों में बल का संचार होता है, चित्त शांत हो जाता हैऔर वह बिना किसी दुविधा के यथोचित कर्म करने को प्रेरित होता है। इस प्रकार गीता कर्म करने की प्रेरणा देती है।
कर्म करते-करते इंसान शांत हो सकता है और वह वो पा सकता है जो पाने योग्य है। कर्म की पराकाष्ठा कर्त्ता के खोने में है। कर्त्ता धीरे-धीरे खो जाता है और वह अकर्त्ता में स्थापित हो जाता है। लेकिन इसकी एक शर्त है और वो शर्त ये है कि कर्म बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी लालसा के हो। और कर्म करते हुए चित्त में हर समय परमात्मा का ध्यान होना चाहिए। ऐसा चित्त धीरे-धीरे शुद्ध, शांत और स्थिर होने लगता है। कृष्ण इसे निष्काम कर्म कहते हैं जिसमें कर्म के फल की आकांक्षा नहीं हो।
गीता स्वधर्म की भी बात करती है और कहती है कि कर्म स्वधर्म के अनुरूप हो। स्वधर्म यानि मनुष्य की प्रकृति या उसका अपना स्वभाव या गुण-धर्म। स्वधर्म एक तरह से व्यक्ति का टाईप है। ये प्रकृति के तीन मूल गुणों के अनुपात से निर्धारित होता है। अलग-अलग व्यक्तियों का टाईप अलग-अलग हो सकता है। जैसे रजस के प्रभाव से अर्जुन का स्वधर्म या टाईप क्षत्रिय है। मूलतः चार टाईप बताये गए हैं - ब्राह्मण (सत्व की प्रधानता), क्षत्रिय (रजस की प्रधानता), वैश्य (रजस + तमस) और शूद्र (तमस की प्रधानता)। इसे वर्ण के नाम से जाना गया है लेकिन इसका मनुष्य के जन्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सिर्फ उसके गुण-धर्मों के अनुसार ही तय किया जा सकता है। गीता कहती है कि अपना टाईप समझ कर हमें अपने कर्मों का यथासंभव विचारपूर्वक चयन करना चाहिए। ऐसा करने से कर्म ही उसका फल हो जाता है और फल की चिंता स्वयं गिर जाती है और अतः कर्म करते हुए उसका मन व्याकुल नहीं होता है।
गीता नियत कर्म की भी बात करती है। जीवन की परिस्थितियाँ हमें जिस जगह खड़ा करती हैं, वहाँ हमारे सम्मुख जो कर्त्तव्य हैं, वही हमारा नियत कर्म है और उसे करना हमारा धर्म हो जाता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि ये उसका नियत कर्म भी है और स्वधर्म भी।
कर्म के साथ-साथ कर्त्ता के चित्त की स्थिति कैसी है, ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है। कर्म के फल की चिंता से या स्वार्थ के लिए किया जाने वाला कर्म मन को अशांत करता है क्योंकि मन सदा परिणाम के बारे में सोचता रहता है। बिना किसी निजी स्वार्थ के तहत किया जाने वाला और दूसरों के लिए किया जाने वाला कर्म मन को शांत और शुद्ध भी करता है।
कर्म करते-करते मनुष्य को धीरे-धीरे अंतर्मुखी होने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके लिए कृष्ण अभ्यास योग की बात करते हैं जिसमें अभ्यास के द्वारा मन को शांत किया जा सकता है। ये वही योग है जिसकी बात महर्षि पतंजलि अपने योग सूत्रों में करते हैं। अभ्यास से धीरे-धीरे मन की वृत्तियाँ शांत होने लगती हैं और सुषुम्णा से प्राण शक्ति प्रवाहित होने लगती है और योगी आनंद का अनुभव करने लगता है। वह धीरे-धीरे चेतना के ऊँचे स्तरों को छूने लगता है और पूर्ण परमानंद में स्थापित हो जाता है। योगी का अहंकार समाप्त हो जाता है, वह शुन्य हो जाता है और निर्विकार-निर्विचार की अवस्था में स्थित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन, तुम योगी बनो।
गीता के अनुसार कृष्ण को भक्त भी प्रिय हैं। अच्छे भक्त की उन्होंने तीन विषेशताएँ बतलाई हैं - अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण, हर परिस्थिति में शांत मन और सबके कल्याण के बारे में सोचने वाला ह्रदय। भक्ति के लिए आवश्यक शर्त समर्पण की है। भक्त स्वयं को खुद से बड़ी एक सत्ता के सामने समर्पण कर देता है। फिर भक्त अपने इष्ट में विलीन हो जाता है। उसकी इष्ट से पृथक सत्ता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार टूट जाता है।
गीता को सही मायने में समझें तो हम पाएंगे कि कर्म, अभ्यास और भक्ति का सच्चा समन्वय ही जीवन का सही तरीका है। मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष है जो उसे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर दे। यह एक लम्बी यात्रा है। कर्म, अभ्यास और भक्ति के रास्ते से चलते हुए चित्त की शुद्धि होती है, मन शांत होता है, मनुष्य अंतर्मुखी होने लगता है, मौन एवं एकांत भाने लगता है, तटस्थ होने लगता है, जीवन के सुख-दुःख से ज्यादा प्रभावित नहीं होता है, स्वीकार भाव आने लगता है, पाने की लालसा समाप्त हो जाती है, वैराग्य आने लगता है और संसार की व्यर्थता का बोध सघन होने लगता है। अपनी आत्मा में स्थित होकर उसे आनंद की अनुभूति होती है और मन की सारी आकांक्षाएँ बिना किसी प्रयास से स्वतः गिर जाती हैं। वह न सुख से उत्साहित होता है और न दुःख से ही विचलित। उसकी प्रज्ञा स्थित और स्थिर हो जाती है और वह स्थितप्रज्ञ की अवस्था को प्राप्त होता है। ठीक यही अवस्था एक भक्त, एक योगी या एक ज्ञानी की भी होती है।
कर्म मनुष्य को अकर्त्ता में ले जाता है। योग का अभ्यास भी कर्म है जो धीरे-धीरे योगी को केवल्य में ले जाता है जब वह स्वयं खो जाता है और सिर्फ पुरष ही शेष रहता है। भक्ति भी कर्म से शुरू होती है। भक्त पहले इष्ट सगुण की पूजा, आराधना, भक्ति करता है और जैसे-जैसे उसके चित्त की शुद्धि होने लगती है और उसका व्याकुल मन ठहरने लगता है, वह निर्गुण भक्ति की ओर जाने लगता है और अंततः स्वयं को पूर्ण रूप से परमात्मा में विलीन कर देता है। ये द्वैत से अद्वैत की यात्रा है।
कर्म और अभ्यास से जैसे मन शांत होने लगता है, मनुष्य की चेतना सूक्ष्मतर होती जाती है और उसे एक अदृश्य शक्ति का अनुभव होने लगता है। शांत हुआ मन धीरे-धीरे ध्यान में गहरा डूबने लगता है। साथ-ही-साथ शरीर की नेति घटने लगती है। विवेक की सहायता से वह समझने लगता है कि वह शरीर नहीं है, वह मन भी नहीं है, बल्कि इनका साक्षी है। फिर वो कर्म होते हुए देखता है। उसे आभास होने लगता है कि वह कर्म नहीं कर रहा है, उसके द्वारा या उसके शरीर के द्वारा कर्म हो रहा है। वह अकर्त्ता हो जाता है। वह निमित्त हो जाता है। वह वेदांत का अध्ययन करने लगता है जो उसकी स्वयं की अनुभूतियों से मेल खाती हैं और ये प्रमाण देती हैं कि उसकी यात्रा सही जा रही है। यह एक तरह से ज्ञान का मार्ग है जो धीरे-धीरे उसे अद्वैत की ओर ले जाती है।
किसी भी मार्ग से यात्रा की जाए, मंज़िल एक ही मिलती है। ये मंज़िल है स्वयं को खोने की, अपने सत्य रूप के साक्षात्कार की। मैं, मन, आदि-आदि सब आत्म-अनुभव की आग में धू-धू हो जाते हैं। अर्जुन खत्म हो जाता है और उसके अंतर्मन में जो अंतर्यामी कृष्ण हैं, वही बिना किसी अवरोध के प्रकाशित होने लगते हैं। इसी की ओर इशारा करते हुए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि तुम सब कुछ छोड़ कर मेरे पास आ जाओ। इसका अर्थ यह है कि अर्जुन जो इतना प्रयास कर रहा है, भटक रहा है, अपना मन कहाँ-कहाँ फँसाये हुए है, क्या-क्या हासिल नहीं करना चाहता है, वह सब करना छोड़ दे। और अपने रथ की बागडोर पूरी तरह से अंतर्यामी, जो स्वयं परमात्मा का अंश है, उसकी हाथों में सौंप दे। यही समर्पण मोक्ष है, यही सन्यास है।
कृष्ण यहाँ मित्र हैं, सारथि हैं, गुरु हैं और परमात्मा भी हैं। कृष्ण परमात्मा हो चुके हैं जो हर मनुष्य की चेतना की अंतिम सम्भावना है। यही चेतना जो कृष्ण की चेतना है, हमारे ह्रदय के अंतरतम गहराईयों में अंतर्यामी बनकर प्रकाशित होती रहती है। इस तरह से गीता अपने घर वापसी की यात्रा है।