फ़ना फिल हक़

धागे से टूट कर सब मोती बिखर गए
बैठे थे शाख़ पर वो पंछी किधर गए ?

उठ कर बुलबुला पानी में खो गया
यूँ ही जहां में आये यूँ ही गुजर गए

गुम हुई है हीर राँझे की खोज में
राहे-फ़ना के रहबर सभी किधर गए ?

होने ने मेरे ही बढ़ा दी मुश्किलें
ख़ुदी से बढ़े तो हम भी उबर गए

कई मक़ाम हैं तवील सफ़र में
मुर्शीद थे तो पार राही उतर गए 
चल रहा हूँ मैं
न जाने पर किधर
सपनों की चमक
दोनों आँखों में भर

राहें ठग रही हैं
थमता नहीं सफ़र
मंज़िल है भी क्या
कोई कहीं किधर ?

किस आस पर चलूँ
किस राह पग धरूँ
एक खेल ही तो है
देखूँ चाहे जिधर

हर कोई चल रहा
भागता फिर रहा
तिश्नगी मन की
किसकी मिटी मगर

लाखों में कोई एक
खेल के परे गया
चला वो फ़क़ीर हो
कर धुंआ सब फ़िकर


मैं किस चीज़ से भाग रहा हूँ ?

मैं किस चीज़ से भाग रहा हूँ ? हमारा एक दोस्त है। फ़ितरतन धारा के विरुद्ध बहने वाला। बेफ़िक्र, आज़ादी-पसंद और घुमक्कड़। कॉरपोरेट कल्चर कभी उसे रास...