जब मैं ख़ुद से मिला

कविता-जैसी कुछ लिखना मेरे लिए ऐक्सीडेंटल ही रहा। मुझ से पहली कविता-सी चीज़ लिखने की घटना तब घटी जब मैंने कॉलेज कैंपस की बेफ़िक्री से निकल कर कॉरपोरेट की घुटन भरी हवा में कदम रखा था। आज़ादी के ख़तम होने का भारी भरकम दुःख हुआ था और बगावत के तौर पे कंपनी के डेस्कटॉप पर "जब मैं ख़ुद से मिला" का अवतरण हुआ था।  इसकी पहली लाइन 'एक सुबह मैं चला समंदर से बातें करने को' टाइप करते  ही लिबरेशन जैसी एक जबरदस्त वाली फीलिंग हुई थी। 
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एक सुबह घर से चला मैं समंदर से बातें करने को
कितनी आगे निकल चुकी है दुनिया ये समझने को
ज़िन्दगी की आपाधापी में ख़ुद को ही भूल गया था
बरसों बाद वक्त निकाला था उस रोज़ ख़ुद से मिलने को
अपने साथ आखिरी बार कब बैठा था ये याद नही
क्या ख़ुद को पहचान पाउँगा भय था इस बात का भी

खैर, हिम्मत की, आगे बढ़ा, ख़ुद की तरफ़ हाथ बढाया
एक आवाज़ सुनी, ये मेरी तन्हाई में खलल देने कौन आया
मैंने कहा मैं अपनी कुछ उलझनें दूर करने आया हूँ
ज़िन्दगी से क्या चाहता हूँ कुछ सवाल करने आया हूँ
कब से चल रहा हूँ अब तो वक्त का भी अंदाज़ा नही
थक चुका हूँ मैं बहुत, थोड़ा आराम करने आया हूं

फिर वही आवाज़ सुनी, मैं तो हमेशा तेरे साथ ही था
तुम ही थे मशरूफ़ बहुत, मुझे तो तेरा इंतज़ार था
कुछ वक़्त है तुम्हारे पास कि कुछ वक्त निकाल पाओ?
जरूरी ये कि बातें करें हम, थोड़ी देर दुनिया भूल जाओ
मैं बैठ गया गीली रेत पर, सामने ख़ुद भी बैठा था
सब कुछ भूल गया था मैं, माहौल ही कुछ ऐसा था

ख़ुद ने कहा चलना जीवन का नाम है बस चलते रहो
पर क्या इल्म है अपनी मंज़िल का, आख़िर कहाँ जा रहे हो?
मेरी मंज़िलऔर मेरा ठिकाना तो लोगों ने मुक़र्रर किया है
रास्ते बनाए दुनिया ने जिन पे मैंने बस सफ़र किया है
ख़ुद की बात सुनी है कब, सुन के भी कभी समझा नहीं
जो चाहता था वो कर पाऊंगा , ऐसा रहा कभी हौसला नहीं

देर से ही सही पर बात मेरी समझ में आ गई
मेरी जिंदगी बस मेरी है किसी और की नहीं
क्यों सुनूँ किसी और की बात बस ख़ुद का कहा सुनूँ
ख़ुद ने जो बताया अब उसी रास्ते पर चलूँ
हो सकता है शुरू में थोड़ा भटकना पड़े
पर खुशी होगी मुझे इस बात की
कि मैं चला वो राह जो ख़ुद ने चुनी
हाँ हाँ वो राह जो ख़ुद मैंने चुनी

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