कविता जिसे मैं जानता था

क्या हो गया उस कविता को
जिसे मैं जानता था
कैसे बदल गयी वो !

वो सजती सँवरती थी
इठला कर चलती थी
शोख़ थी वो, उसमें चंचलता थी
दिल के हिमालय से पिघलकर
बड़ी रवानी से बहती थी

मृतप्राय हो चुकी है शायद
अस्तित्व खो रही है अपना
किसी विलुप्त प्राणी की तरह

अभी जिसे मैं देखता हूँ
जिसने उसके नाम का
बस मुखौटा पहन रखा है
हमशकल है उसी की
मगर उसमें वो लोच नहीं,
उसमें वो रवानी नहीं
दिलों तक वो पहुँचती नहीं

न वो अंतर के द्वंद्व पे
कुछ  कहती है
न दर्द किसी का ढोती है
न ही माशूक़ से
मोहब्बत की बात करती है
न आत्मा की परमात्मा से  मिलन की

हाँ  इन सब  की जगह
मुद्दों ने ली है
बिकुल एक श्वेत-श्याम
अख़बार की तरह
जिसमें जीवन का कोई रंग नहीं
जो न दिल से निकलती है
न दिल तक पहुँचती है

उम्मीद छोड़ दूँ क्या मैं
या वो आएगी वापस ?
कविता जिसे मैं जानता था
क्या हो गया उसे !
कैसे बदल गयी वो !



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