मेरी शख़्सियत के
किसी हिस्से में
एक बर्क़ सी लहराती है
एक हसरत
कोई ख़्वाहिश, कोई आरज़ू

फिर शुरू होता है
एक सिलसिला
ख़यालों का, तस्सवुर का
सोच के समंदर में
मैं डूबता हूँ, उभरता हूँ

फिर जब इरादों का
साहिल मिल जाता है
तो उतरता हूँ ज़मीन पर
क़दम बढ़ाता हूँ
इब्तिदा होती है
एक सफ़र की

कोई सफ़र लम्बा होता है
तो कोई छोटा
कभी मंज़िल मिलती है
तो कभी नहीं
पर कमोबेश
यही सिलसिला होता है
जब भी मैं कुछ करता हूँ

पर इसका एक हिस्सा ही
ज़मीन के बाहर होता है
बड़ा हिस्सा तो मेरे ज़ेहन के
अंदर ही होता है
एक पेड़ की तरह ही
जिसकी जड़ें ज़मीन के
अंदर होती हैं

किसी-किसी पेड़ को
ज़मीन के बाहर आने में
ज्यादा वक़्त लगता है
तो कुछ जल्दी भी आ जाते हैं



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