क्या ढूंढ रहा हूँ मैं !

मुड़ के देखता हूँ राहों को जिनपे यहाँ तक चल आया हूँ
क्या था जिसकी खोज में इतनी दूर निकल आया हूँ
कुछ हुआ भी हासिल तो अगले ही क्षण खो दिया उसे
पा कर जिसे थम जाऊँगा, वो शै कहाँ ढूंढ पाया हूँ

मैं धरा से गगन तक नहीं उड़ जाना चाहता था
नदी था, मैं बस समंदर तक बह जाना चाहता था
मेरे लिए भी आसान था सब छोड़ कहीं चले जाना
पर संघर्षमय रहकर ही मैं सत्य को पाना चाहता था

सत्य की गठरी छिपी नहीं हिमालय की गुफाओं में
न गंगा की डुबकियों में, न साधुओं की जटाओं में
मंदिरों में बंद नहीं ये, यही है बाहर खुली हवाओं में
यही मेरे मन में, ह्रदय में, धमनियों में, शिराओं में

पर जन्मों की तृष्णा में डूबा, पार अब जाने कब लगूँ
चिर-निद्रा में सोया हुआ, मैं क्या जाने अब कब जगूँ 

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