क्या ढूंढ रहा हूँ मैं !

मुड़ के देखता हूँ राहों को जिनपे यहाँ तक चल आया हूँ
क्या था जिसकी खोज में इतनी दूर निकल आया हूँ
कुछ हुआ भी हासिल तो अगले ही क्षण खो दिया उसे
पा कर जिसे थम जाऊँगा, वो शै कहाँ ढूंढ पाया हूँ

मैं धरा से गगन तक नहीं उड़ जाना चाहता था
नदी था, मैं बस समंदर तक बह जाना चाहता था
मेरे लिए भी आसान था सब छोड़ कहीं चले जाना
पर संघर्षमय रहकर ही मैं सत्य को पाना चाहता था

सत्य की गठरी छिपी नहीं हिमालय की गुफाओं में
न गंगा की डुबकियों में, न साधुओं की जटाओं में
मंदिरों में बंद नहीं ये, यही है बाहर खुली हवाओं में
यही मेरे मन में, ह्रदय में, धमनियों में, शिराओं में

पर जन्मों की तृष्णा में डूबा, पार अब जाने कब लगूँ
चिर-निद्रा में सोया हुआ, मैं क्या जाने अब कब जगूँ 

कविता जिसे मैं जानता था

क्या हो गया उस कविता को
जिसे मैं जानता था
कैसे बदल गयी वो !

वो सजती सँवरती थी
इठला कर चलती थी
शोख़ थी वो, उसमें चंचलता थी
दिल के हिमालय से पिघलकर
बड़ी रवानी से बहती थी

मृतप्राय हो चुकी है शायद
अस्तित्व खो रही है अपना
किसी विलुप्त प्राणी की तरह

अभी जिसे मैं देखता हूँ
जिसने उसके नाम का
बस मुखौटा पहन रखा है
हमशकल है उसी की
मगर उसमें वो लोच नहीं,
उसमें वो रवानी नहीं
दिलों तक वो पहुँचती नहीं

न वो अंतर के द्वंद्व पे
कुछ  कहती है
न दर्द किसी का ढोती है
न ही माशूक़ से
मोहब्बत की बात करती है
न आत्मा की परमात्मा से  मिलन की

हाँ  इन सब  की जगह
मुद्दों ने ली है
बिकुल एक श्वेत-श्याम
अख़बार की तरह
जिसमें जीवन का कोई रंग नहीं
जो न दिल से निकलती है
न दिल तक पहुँचती है

उम्मीद छोड़ दूँ क्या मैं
या वो आएगी वापस ?
कविता जिसे मैं जानता था
क्या हो गया उसे !
कैसे बदल गयी वो !



तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...