जानता हूँ जाना चाहता हूँ मैं किधर
एक डर मगर रोक देती है क़दमों को अक्सर

रह-रह कर दिल में अफ़सोस होता तो है बहुत
अब भी अगर कभी जो देखता हूँ पलटकर

आवाज़ देकर राहें बुलाया करती थीं हमें
हर बार मगर रुक जाते हम मोड़ पे आकर

इब्तिदा में मंज़िल कब साफ़ आती है नज़र
कोहरा हट ही जाता है चलते रहने से मगर

हुआ है कई बार यूँ भी सफ़र में अक्सर
राह गलत थी जाना है ये मंज़िल पे आकर

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