अपने अंदर झाँक कर देखा
रहता है आख़िर कौन यहाँ
अँधेरा पाया और उमस भी
और वीरान पड़ी एक बस्ती

ढही ईमारत, सुनसान राहें
हर कोने से उठती आहें
सन्नाटा कुछ बयान करती
अज़नबी की पहचान करती

सोज़ बहुत और ग़ुबार भरा
अंदर था हाहाकार मचा
क्या कोई यहाँ रहता है !
क्या अब भी कोई रहता है !

टूटी हुई कमजोर एक काया
बस इतना मैं देख पाया
चेहरे पर दर्द की रेखा
मैंने अपने आप को देखा

परेशां और ग़मगीन पड़ा
बदन सलाखों में जकड़ा
अंदर एक क़ैदी इंसान
जर्जर और लहू-लुहान

मेरा मन तड़प रहा था
मुझसे कुछ कह रहा था
इस क़ैद से अब आज़ाद करो
उन्मुक्त गगन में उड़ने दो

मैं था अंदर क़ैद मेरे
ख़ुद पे ज़ुल्म हज़ार किये
अब तो थोड़ी रौशनी हो
सुकूँ और क़रार मिले

जंजीरें टूटने लगीं
तमस भी हटने लगा
दर्द काफ़ूर हो गया कहीं
मैं मुझसे नहीं रहा अज़नबी !

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