करना या बस होना !

ज़िन्दगी एक जंग है
एक मुसलसल जंग
करने और होने के दरमियान
करना जो इंसान का फ़ुतूर
और होना उसका मुस्तक़बिल
करना जो होने नहीं देता
लेकिन होने तक का रास्ता
करने से ही होकर गुज़रता है
करना कभी बादल बनकर छाता  है
होना कभी सूरज बनकर आता है

करना जैसे पहाड़ से निकल कर
समंदर तक दरिया का बहना
होना जैसे पहाड़ पे फैली बर्फ
और पसरे समंदर का पानी
करना जैसे क़ैदे-ज़ीस्त कोई
होना सारे ग़म से नजात जैसे
करना जैसे सीने में आग, सर पे जुनूँ
बेताबी, बेचैनी, छटपटाहट, जुस्तुजू
होना  लेकिन जैसे इन सब का न होना
जैसे चांदनी रात, उस रात का सुकूँ
घास में ठहरी शबनम की बूँद
करना जैसे हो बिखर जाना
और होना जैसे सिमट जाना
करना जग को पाकर ख़ुद को खोना
होना ख़ुद में खोकर ख़ुद को पाना

करने का दायरा फैलता जाता
करने का, करते रहने का सिलसिला
चलता है, चलता ही रहता
जब तक कि ख़्वाहिशें हैं, आरज़ू हैं
इंसान कुछ करता है
उसके बाद कुछ और
और फिर कुछ और
पर तिश्नगी मिटती नहीं
बेताबी, बेचैनी कम होती नहीं
कुछ करना तो है ज़िंदा रहने की ख़ातिर
कुछ जिम्मेदारियों की ख़ातिर
पर कुछ करना ऐसा भी है कि जिन्हें
करने- न करने पर इख़्तियार है उसे
पर वो रुकता नहीं, सिलसिला थमता नहीं
जब तक कि ख़्वाहिशें हैं, आरज़ू हैं

पर करते रहने से मर जाता है होना
सच तो ये है कि न होने से
रुक पाएगा नहीं करने का सिलसिला
पर कुछ करने से ही पैदा होंगे
होने के इम्कान, ये भी सच है
तो करें हम सोच कर करने का इंतिख़ाब
ऐसे कि सिमट जाए करने का दायरा
और निकल आए होने का आफ़्ताब
छोटी होती जाए करने की ज़मीं
बड़ा होता जाए होने का आसमां
ग़ैर-जरुरी करना गिरें शाख से
सूखे हुए पत्तों की तरह
और होने में होकर ही इंसान
करे बस वो जो है जरुरी करना

और करने से हुआ है क्या
इंसान को हासिल ?
कुछ तबस्सुम, कुछ आँसू
खुशियाँ कुछ पा लेने की
ग़म कुछ खो देने का
और फिर आने वाले कल का ख़ौफ़
या उससे बेइन्तिहा उम्मीदें
और फिर उनके टूटने का ग़म
होना लेकिन है अभी इसी पल में होना
न अगले पल से और न
आने वाले कल से कोई उम्मीद
और न अगले पल का, न ही
आने वाले कल का कोई ख़ौफ़




दीवाना हो गया हूँ बस मैं तेरे नाम का
तेरी इनायत के बिना हूँ मैं किस काम का

लगा रहता हूँ दिन भर काम में मगर
सारा दिन इंतज़ार करता हूँ मैं शाम का

क्या-क्या करता हूँ  दुनिया में रहकर
समझता यही हूँ कि हर काम है राम का

बस तेरे रस्ते चलता रहूँ, दे हौसला तू
रस्ता रह चुका है जो पहले भी तमाम का

तेरे नाम में डूब जियूँ, तेरा ही काज करूँ
हंस कर जीता जाऊँ जीवन गुमनाम का


सोच रहा हूँ आज फिर
मैं अपने अंदर उतर कर देखूँ
कि वहां का माज़रा क्या है

तो पाता हूँ कि
दरवाजे पर जंग है
और ज़ीने पे धुल पड़ी है
गोया कोई सालों से
आया न हो इधर

हॉल की दीवारों पर
समझदारी का रंग चढ़ा है
जज़बातों के कमरे के ऊपर
प्रैक्टिकैलटी की लॉक चढ़ी है

इस लाइब्रेरी-कम-ऑफिस में
जहाँ बैठ कर मैं
अनवाइंड होता था
इस क़दर अँधेरा क्यों है वहां !

और संवेदनाओं  को
समेट कर कोने में
किसने रख दिया है

दूसरे कमरे में जहाँ
मैंने यादों को
सहेज कर रखा था
वहां की बत्ती
आज भी जलती है
लेकिन इन यादों को
बड़े वाले कमरे में
शिफ्ट करना पड़ेगा
ये कमरा अब
छोटा पड़ने लगा है

काफी काम पड़ा हुआ है इधर
अब इधर आते रहना होगा
इस बे-तरतीब से
मकां को ठीक करना पड़ेगा

अगली बार
तुम्हे भी साथ लेकर जाऊँगा

मैं जानता हूँ
तुमने ऊँचाइयाँ
हासिल कर ली हैं
ऐवरेस्ट हो गए हो
ख़ुश्क और ठन्डे

कभी-कभी तो
उतरो अपने आसमान से
आओ तो जरा  मैदानों में
पिघल जाओ और बहने लगो
फिर ज़िन्दगी की धार बनकर 
रात के ख़ामोश अंधेरों में
दिन भर के ख़याल जब ऊँघने लगते हैं
दबे पाँव सबसे नज़रें बचाकर आती हैं
तुम्हारी यादें दिल पर दस्तक  देती हैं
और उनकी उंगलियाँ थाम कर मैं
तसव्वुर की राहों में निकल जाता हूँ

चाँद आसमां में बादलों से  निकलता है
लहू में घुलकर कुछ रगों में बहने लगता है
लगता है आज की रात फिर देर से बुझेगी
मैं डायरी और पेन निकाल लूँ जरा
एक नयी नज़म लिहाफ़ के अंदर
अंगड़ाई ले रही है  
अधूरे ख़्वाबों का मुसलसल सिलसिला ही सही
ज़िन्दगी नाकामियों का एक क़ाफ़िला ही सही
बुलंदियों की ख्वाहिशें क्यूँकर हो कम मगर
उड़ जाआदमी, तू पानी का एक बुलबुला ही सही 

सबेरा

वो सुबह जो मिल न सकी
वो कली जो खिल न सकी
उम्मीद जो पल न सकी
वो शब जो ढल न सकी

परिंदा वो सुबह का जो
ख़्वाब से हमें जगा गया
नए दिन की उम्मीद करना
फिर से हमें सिखा गया

कह दो कोई उस परिंदे से जाकर
कुछ आँखों में नींद नहीं होती
कुछ नींदों में ख़्वाब नहीं होते
कई ख़्वाब यहाँ पूरे नहीं होते
होती हैं कई रातें ऐसी भी
जिनके हिस्से सबेरे नहीं होते

जीवन जीने जैसा हमने मुश्किल इतना काम किया
मोहलत कब, फुर्सत कहाँ, कब हमने आराम किया 
हर एक की ज़िन्दगी का कमोबेश यही हाल है
कल के  लिए आज के खो जाने का मलाल है 
कभी सुख की गंगा में मैं तैरता रहा
तो कभी दुख की यमुना में डूबता पाया
जीवन रूपी संगम पे बैठा  मुसाफ़िर
 सरस्वती आनंद की पर ढूँढ न पाया 
कहानी बनती है तब जब कोई दीवाना होता है
दुश्मन जिसका तख़्तो-ताज़ो-ज़माना होता है
 हर दो कदम के फासले पे नई ठोकरें मिलती रहीं
ज़िन्दगी मगर ज़िन्दगी अपने दम पर चलती रही
क्या करे कोई  ख़्वाब कोई ऐसे दिल में पले
ज़मीं करे ख्वाहिश कि वो आसमां से मिले 
हमारे जीवन के पन्ने पर
तुम उभरे थे
एक चंद्र-बिंदु की तरह
और धीरे-धीरे फैलकर
पूरी वर्णमाला हो गए
और हमारे जीवन की पुस्तक
मोटी होती जा रही है
समय-समय पर इसमें
नए अध्याय जो
तुम जोड़ दिया करते हो !
वो अफ़साने किसको सुनाते
इसलिए चुप रह जाते हैं
हैं कुछ लोग जो जाकर भी
यादों में रह जाते हैं

छोड़कर दामन जब था जाना
मेरी राहों में आये क्यों थे
महका कर दिन-रातों को
साँसों में समाये क्यों थे

दिन पहाड़ सा बैठा रहता
रात भी कहाँ गुज़रती है
तेरी एक ख़बर पाने को
रूह मारी-मारी फिरती है

कुछ उठता दिल से रह-रह कर
कुछ पलकों से बह जाता है
गा देता हूँ कभी गीत कोई
कुछ होठों में रह जाता है

आओ मुझसे ख़ुद को ले जाओ
मेरा मैं मुझे वापस कर दो
न मुझमे तुम बचे, न तुझमे मैं
करम अब इतना बस कर दो


अपने अंदर झाँक कर देखा
रहता है आख़िर कौन यहाँ
अँधेरा पाया और उमस भी
और वीरान पड़ी एक बस्ती

ढही ईमारत, सुनसान राहें
हर कोने से उठती आहें
सन्नाटा कुछ बयान करती
अज़नबी की पहचान करती

सोज़ बहुत और ग़ुबार भरा
अंदर था हाहाकार मचा
क्या कोई यहाँ रहता है !
क्या अब भी कोई रहता है !

टूटी हुई कमजोर एक काया
बस इतना मैं देख पाया
चेहरे पर दर्द की रेखा
मैंने अपने आप को देखा

परेशां और ग़मगीन पड़ा
बदन सलाखों में जकड़ा
अंदर एक क़ैदी इंसान
जर्जर और लहू-लुहान

मेरा मन तड़प रहा था
मुझसे कुछ कह रहा था
इस क़ैद से अब आज़ाद करो
उन्मुक्त गगन में उड़ने दो

मैं था अंदर क़ैद मेरे
ख़ुद पे ज़ुल्म हज़ार किये
अब तो थोड़ी रौशनी हो
सुकूँ और क़रार मिले

जंजीरें टूटने लगीं
तमस भी हटने लगा
दर्द काफ़ूर हो गया कहीं
मैं मुझसे नहीं रहा अज़नबी !

जीते हैं सभी
इसलिए मैं भी जीऊँ !
करते हैं जो सभी
वो मैं भी करूँ !

मक़सद  कुछ साफ नहीं
दिखती आगे राह नहीं
चलते हैं जो सभी
वो राह मैं भी चलूँ !

वजह काफी नहीं इतनी
जीवन के होने की
कारण होंगे और कई
जरुरत आहे समझने की

जीवन का अर्थ है क्या
क्या कर्तव्यों का आधार
दुनिया के इस रंगमंच पे 
जाने  क्या मेरा क़िरदार !

सवाल ऐसे कई अनगिनत
उठते हैं मन में अविरत
इनके ही फेरों में उलझा
चलता रहा हूँ अपने पथ

पर अब मौन का वक़्त नहीं
चुप्पी तोड़नी होगी अभी
अब एक शुरुआत लाज़िमी है
पहले काफी देर हो चुकी



हृदय का रुदन ही तो
कवि का गान बन जाता है
दर्द हद से गुज़र कर ही
गीत महान बन जाता है

जीवन भी कैसे रंग बदलता
कभी आँसू तो कभी
मुस्कान बन जाता है
तब  सार्थक है कवि का जीना
दर्द जीवन का जब
कविता का प्राण बन जाता है


मैं था या शायद न था
किधर था, कहाँ था
था तो किस लिए, किसके लिए था
ख़ुद को था कहाँ ख़ुद का पता

ज़िन्दगी व्यस्त और गुम कहीं
दिन और रात का इल्म नहीं
तलब न जाने किस चीज की
जाने क्या ज़ुस्तज़ू दिल में थी

न सोचा कभी पहले मगर
है कोई एक शख़्स हमसफ़र
जरूरतें जुदा जिसकी
या कहें तो कुछ भी नहीं

दर्द मिले तो एहसास हुआ
सांसें थीं पर जिन्दा न था
मेरे संग पूरी दुनिया थी
ख़ुद से पर जुदा तन्हा था

फिर आई नयी एक सहर
कई सारे सवाल लेकर
कौन हूँ मैं ?
हूँ या नहीं हूँ मैं ?

एक सूरज सा शख़्स आया था कहीं से
जो लगा जीवन के सूत्र जानता हो जैसे
उसके संग देर तलक़ बैठा रहा
रूबरू हुआ ख़ुद से और ख़ुदा से

चलता तो हूँ अब भी मगर
है पर मुझको मेरी ख़बर
सब मेरे अपने से अब लगते हैं
जीवन हो गया एक सुहाना सफ़र

तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...