उस रात मुझसे जब था कहा तुमने
क्या तुम्हें फिर जाना ही होगा ?
रोये थे हम कितने बेबस होकर
क्या उस दिवस को आना ही होगा ?

मैंने तुमसे कहा था छुपा लो मुझको
समय भी जहाँ न ढूंढ पाये आकर
तुमने मुझे पकड़ लिया था कसकर
"आओ, अपने में छुपा लूँ" कहकर

तेरे उस कोमल मन से खेला मैं
और इक बचपन से खेला मैं
किसी कमजोर मनुष्य की भाँति
चला आया दूर अकेला मैं

फेर जगत के समझ ना पाता
बस संग हवा के बहता जाता
रुकना चाहा पर नहीं रुका मैं
ये दोहरा खेल अब नहीं सुहाता

कभी कितना विवश होकर इंसान
कर्म-पथ पर आगे चलता है
दुविधा कभी होती दूर नहीं
वो तिल-तिल कर जलता है 

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