प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
जीवन-दुःख के बोझ तले
कन्धा जब झुक जाता है
जीवन-दुःख के बोझ तले
कन्धा जब झुक जाता है
अंतर की घोर तपिश में
हृदय पुष्प मुरझाता है
ऐसे में लगाए हृदय से कोई तो अश्रुधार बंध जाता है
प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
बूंद-बूंद को तरसे जब मन
पतझड़ हो जाए जीवन
आशाओं के मेघ छटें
धू-धू हो सपनों का वन
आये कहीं से स्नेह के छीटें तो सावन फिर आ जाता है
प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
नित दिन एक नया समंदर
प्रस्तुत होता मंथन को
कर्त्तव्यों के बड़े पर्वत
सम्मुख हों आरोहण को
अपनों का ही प्यार उसे तब संघर्ष-शक्ति दे पाता है
प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
आत्म-विश्वास क्षत-विक्षत
जग-दुत्कारों से मन आहत
असफलता की सरिता में
बह-बह कर अविरत
किये वादों का स्मरण ही तब नव-विश्वास जगाता है
प्रेम से बढ़कर इस जग में कोई भला क्या पाता है !
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