फ़िक्र-ए-दुनिया ने कभी बेफ़िक्र होकर रहने न दिया
खुलकर उड़ने न दिया, पिघलकर बहने न दिया
तेरी जुल्फ़ों के साये में ज़िन्दगी मेरी यूँ बीत ही जाती
मेरी बेताबी ने मगर एक जगह मुझे ठहरने न दिया
जुनूँ ही था जो मारा-मारा फिरता रहा दर-ब-दर
घर की चिंताओं ने चैन से घर पर रहने न दिया
खुलकर उड़ने न दिया, पिघलकर बहने न दिया
तेरी जुल्फ़ों के साये में ज़िन्दगी मेरी यूँ बीत ही जाती
मेरी बेताबी ने मगर एक जगह मुझे ठहरने न दिया
जुनूँ ही था जो मारा-मारा फिरता रहा दर-ब-दर
घर की चिंताओं ने चैन से घर पर रहने न दिया
आऊँगा एक दिन लौट, माँ से था ये वादा मेरा
शहर की रौशनी ने मगर मुझे गाँव का रहने न दिया
जिस राह चल रहा हूँ उस पर मेरी मंज़िल तो नहीं
कुछ भूख ने, कुछ डर ने अलग राह चलने न दिया
हर सुबह दफ़्तर जाने की ढूंढता हूँ मैं वजह
चाहता तो हूँ, हसरतों ने मगर कभी रुकने न दिया
शहर की रौशनी ने मगर मुझे गाँव का रहने न दिया
जिस राह चल रहा हूँ उस पर मेरी मंज़िल तो नहीं
कुछ भूख ने, कुछ डर ने अलग राह चलने न दिया
हर सुबह दफ़्तर जाने की ढूंढता हूँ मैं वजह
चाहता तो हूँ, हसरतों ने मगर कभी रुकने न दिया
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