कोई जैसे डायरी के
ज़र्द पुराने पन्नों को
फाड़कर निकालता है
और डस्ट-बिन में डाल देता है
वैसे ही हमारे रिश्ते को
तुमने छोटे-छोटे पुर्जों में
फाड़कर फेंका था उस दिन

मैं आज भी
उन टुकड़ों को ढूंढता हूँ
उस मोड़ पर जाकर

सुना है पर वक़्त ने
तेज आँधियाँ चलायी थीं
उस रोज
उसी में उड़ गए हों शायद

या फिर हर शाम को
जो बारिश होती है
और सारी रात ठहरती है
उसमे बह गए होंगे

कुछ रिश्तों के निशाँ भी
कितनी आसानी से
मिट जाते हैं ना

पर तुम्हारी यादों ने
जो दास्ताँ दिल के
कागज पर लिखी है
वो शायद कभी न मिट पाये

किस परमानेंट इंक से
लिख गयी हो अपना नाम !


खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए
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टुकड़ा हस्ती का टूटकर गिर गया कहीं
आरज़ू उसकी हर पल मैं पास रखता हूँ
मेरा था तो मिल ही जाएगा एक दिन
कैसे कहूँ मैं कि ये विश्वास रखता हूँ
बैठ जाऊं फिर तो लम्बा कहीं विश्राम ना हो जाए
खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए


मैं हूँ वो नदी जो समंदर जानती नहीं
परिंदा वो जो अपनी परवाज़ ढूंढता है
हूँ वो रस्ता जिसपे कोई मंजिल नहीं
एक साज़ ऐसा जो आवाज़ ढूंढता है
इस जुस्तजू में उम्र सारी तमाम ना हो जाए
खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए

चाहता हूँ हिम या बहती जलधारा
दरिया की मौजें या उसका किनारा
सही राह अक्सर पहचान नहीं पाता
जान नहीं पाता अंतर्मन का इशारा
इस ग़फ़लती में गलत कोई अंजाम ना हो जाए
खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए

रौशन दिवस को तम में ढलना होता है
कोयला है चट्टान मगर जलना होता है
जीवन में कई बार ऐसे हालात आते हैं
मन के विरुद्ध खुद को चलना होता है
लड़ रहा हूँ इस युद्ध में हार मेरे राम ना हो जाए
खोज अधूरी रहे और जीवन की शाम ना हो जाए
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की
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सुमन बिछे पथ नहीं मिलेंगे
शूलों पर ही चलना होगा
भास्कर की शंखनाद सुनो ...
उठो पार्थ, फिर लड़ना होगा
देते क्यों हवि हो सिसक-सिसक कर जीवन की
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की


द्वंद्व मन का मिटा नहीं है
महा-भारत रुका नहीं है
विवेक से फिर हो मंत्रणा
कृष्ण, सारथी, सखा वही है
पर विचार नहीं अब कर्म करो, कौरवों ने गर्जन की
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की

समर है ये जीवन का जिसमे
विराम नहीं, विश्राम नहीं
अमर हुए जो जीते लड़कर
हारे हुओं का कोई नाम नहीं
गिर, फिसल मगर तू चल, कर इच्छा-शक्ति मन की
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की

चिंताओं का कोई अर्थ नहीं
चेष्टा कोई व्यर्थ नहीं
अश्रु, स्वेद, रक्त बिना
खुशियों की कोई शर्त नहीं
हो मन कठोर, भुजा में जोर, बेला ये दमन की
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की

अर्जुन उठो, योगी बनो
साधना व कर्म करो
भय, चिंता, अहम, संशय
मेरु-अनल में दहन करो
स्वर्ग-सोपान अंतर्दिश, चेतना हो आरोहण की
उठो, चलो, हुंकार भरो, रूख़ करो तुम रण की
कई लम्बी अँधेरी रातों के बाद
मुख़्तसर सा एक दिन आता है
आखें ठीक से रौशनी में
खुल भी नहीं पाती हैं
कि दिन ढलना शुरू हो जाता है
और फिर वही रातों का कारवां

एक अरसे से
यही सिलसिला चल रहा है
जाने कब थमेगा ये दौर !

दुआ ही तो कर सकता हूँ
सो वो मैं कर रहा हूँ 

तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...