कुछ दिनों से उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान साहब की कव्वालियाँ सुन रहा हूँ। ख़ास कर के दो कव्वालियाँ बहुत बार सुन चूका हूँ - मन कुन्तो मौला और साँसों की माला पर सिमरूं मैं पी का नाम। आस पास का मंज़र और अन्दर की कैफ़ीयत पूरी तरह से सूफ़ीयाना हो गयी है।
और मन कुछ इस तरह का हो गया है ....
क्या करूँ कहीं रमे ना
काम काज कुछ जमे ना
कहीं रहूँ कुछ भी करूँ
ध्यान तुझसे हटे ना
खो जाऊं बस तुझ ही में
मैं मुझमे अब बचे ना
राहे-फ़ना में बहता जाऊं
उफनती धार अब थमे ना
दरस तेरी मेरा मुकद्दर
तेरे सिवा कुछ दिखे ना
जो है जहाँ में वो तू है
तू नहीं तो कुछ रहे ना
और मन कुछ इस तरह का हो गया है ....
क्या करूँ कहीं रमे ना
काम काज कुछ जमे ना
कहीं रहूँ कुछ भी करूँ
ध्यान तुझसे हटे ना
खो जाऊं बस तुझ ही में
मैं मुझमे अब बचे ना
राहे-फ़ना में बहता जाऊं
उफनती धार अब थमे ना
दरस तेरी मेरा मुकद्दर
तेरे सिवा कुछ दिखे ना
जो है जहाँ में वो तू है
तू नहीं तो कुछ रहे ना