मैं तो बह रहा था
एक दरिया की तरह
तुम आए थे ठहराव बन कर
दोनों हाथों का किनारा देकर
तुमने पूरा समेट लिया था मुझे
पहली बार मुझे अपनी गहराई
का एहसास हुआ था तब

पर तुम तो जानते थे
रुकना मेरी फितरत थी नही
बह गया एक दिन फिर
उन मजबूत किनारों को तोड़कर
तुम पीछे छूटते गए
और मैं बहता गया

अब आलम ये है की
मंजिल का इल्म नही
और समंदर की चाहत नहीं
एक कश्ती लेकिन अब भी
बह रही है संग मेरे
वो तेरी यादों की है
शायद ही किनारा लग पाएगी अब
वो यार, वो विसाल, वो रात कहाँ से लाओगे 
आरज़ू माना अपने हैं वो हालात कहाँ से लाओगे

दिल संग हो चुका अब दरिया-ऐ-चश्म बहता नहीं
अब बिछडे तो अश्कों की बरसात कहाँ से लाओगे

वो तेरा फिर कहना कि एक मुलाक़ात लाज़िमी है
हम मिल जाएँ पर करने को बात कहाँ से लाओगे

दरमियान अपने एतबार कहीं गुम हो चुका है अब
वो खामोशी, वो सुखन, वो ख़यालात कहाँ से लाओगे

ज़माना बदल जाओगे मुसाफिर किस ख्वाब में जीते हो
वो हौसले, वो इरादे, वो जज़्बात कहाँ से लाओगे

निशाँ अब भी है बांकी ....

दिल के बंज़र ज़मीं पे
उन्होंने कभी मोहब्बत के बीज डाले थे
सींचा करते थे उसे अरमानों से
हरा भरा पौधा निकल आया था वहां रिश्ते का एक

वक्त के साए में बढ़ता रहा वह
बड़ा पेड़ हो गया था
विश्वास की मजबूत डालियाँ थीं उसकी
सपनों के पंछियों का बसेरा था उन पर

फिर एक दिन कहीं से तूफ़ान आया था
डालियाँ टूट गयीं थीं सारी
घोसले बिखर कर ज़मीं पे आ गिरे थे

ठूंठ पेड़ अभी भी खड़ा है वहीँ
यादों की जड़ें जो फ़ैल गयीं थीं
पूरी तरह ज़मीं के अन्दर
उन्ही मजबूत जड़ों ने उसे
संभाल रखा है .....
होठों पे अपने तुमने दबा रखा क्या है
पलकों में मोती सा छुपा रखा क्या है

तमाशा देखने वालों घरों को जाओ
रात गुजर चुकी अब बचा क्या है

जले हैं घर जिनके पूछो उनसे जाकर
क्या बचा पाये हैं और जला क्या है

गाँव अपना छोड़ तुम शहर आ गए
बूढे माँ बाप वहां, यहाँ ऐसा क्या है

रातों को अक्सर टहलता है फलक में
कभी आधा कभी पूरा ये अजूबा क्या है

लब से कहा कुछ न आँखें पढने दी
उश्शाक बतलाएं हमें ये अदा क्या है

बाहर निकले तुम न हमें घर आने दिया
बात क्या है आख़िर तुम्हे हुआ क्या है

गरीब की छप्पर से धुंआ निकला है
देखो तो उसके घर जला क्या है

किस ख्वाहिश को इस बार मारा है
तेरी आंखों से फिर बह रहा क्या है

ढूंढ लूंगा एक दिन तुमको ऐ जिंदगी
मुसाफिर को चलने की सज़ा क्या है

मेरा भारत महान?

क्या ये वही प्रजातंत्र है
जिसके लिए इतनी लड़ाईयां लड़ी थीं
इतनी सारी कुर्बानियों की
हमने कहानियां पढ़ी थीं
फिर क्यूँ भूल गए वो कुर्बानियां
अपने पूर्वजों की वो मेहरबानियाँ

ये उनके सपनों का प्रजातंत्र नहीं है
खो गया लगता इसका मूलमंत्र कहीं है
आज भी इंसान पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है
विचारों से व्यवहारों से परतंत्र कहीं है
मजबूत जड़ से भी शाखाएं मजबूत पनप नहीं सकीं
गाँधी के सपनों की दुनिया बस नही सकी

शिक्षा का प्रसार हम कर नहीं सके
सुविधाओं में सुधार हम कर नहीं सके
तंत्र में लोगों का विश्वास जगा नही सके
योग्य उम्मीदवारों की कतार लगा नही सके
लोग आज भी यहाँ दुःखहाल हैं
गाँवों के मंजर और भी बदहाल हैं

शासक आज भी यहाँ शोषक है
चुनावी जोड़ तोड़ बड़ा रोचक है
शासित आज भी यहाँ शोषित है
रामधीन का बेटा आज भी कुपोषित है
नेताओं मंत्रियों को अपनी जिम्मेदारियों का भान नहीं है
जनता को भी अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं है
कदाचित ये सपनों का भारत महान नहीं है ........

बारिश

आज फिर
वक्त ले आया है उन्ही हवाओं को

दिल के आसमां में
फिर जज़्बातों के बादल उमडेंगे

बारिश होगी फिर रात भर
आंखों से ......

त्रिवेणी

कल जो अपनी ज़ुल्फों को तुमने उठा के समेटा था
तेरी मांग का सिन्दूर मुझे दिख गया था
मेरे अरमानों के खून का रंग अभी भी था उसमे

वाह रे मीर, खुदा-ऐ-सुखन ....

बकौल गालिब .....
"कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था"

और ज़ौक फरमाते हैं .....
"न हुआ पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब"

उसी मीर के बारे में एक video हाथ लगी है .... share कर रहा हूँ ......

लहरों ने आवाज़ दी .....

शाम का वक्त था
मैं साहिल पे बैठा था
हमेशा की तरह अकेला
सूरज को ढलते देख रहा था

एक अजीब सी कशिश थी चारों तरफ़
सुरूर पुरी तरह मेरे उपर छा रहा था
नमी से भरी हवा चेहरे पे आ रही थी
मैं भी कोई गीत गुनगुना रहा था

समंदर अपनी बाहें फैलाए
बड़े इत्मीनान से लेटा हुआ था
किरणें उसे छूकर जा रही थीं
वो जुदाई के ग़म में डूबा हुआ था

कुछ देर में ख़तम हो जाएगा सब
मैं शायद ऐसा ही सोच रहा था
उठते और गिरते लहरों की शोर में
अँधेरा धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था

ये जो दो लम्हे बचे थे रात से पहले
उनमे मेरा दिन भी सिमट रहा था
ऐसा लगा लहरों ने आवाज़ दी हो मुझे
मैं जब उठ के साहिल से जा रहा था

दवा काम ना आए दुआ तो चले

इश्क में जां अपनी फंसा तो चले

अख्तियार रहा नहीं दिल मगर धड़कता है

खुशबु के बगैर ही हवा तो चले

जां लुटा के अपनी कब से बैठे हैं

संगदिल को मगर कुछ पता तो चले

तेरी ख्वाहिश में दम बारहा मेरा निकले

गालिब मर गया उसका कहा तो चले

मुश्किल है सफर ये आसान नहीं है

कदम डरे रुके हैं हौसला तो चले




आंखों का समंदर सूख चला

दिल भी अब परेशान नहीं

जिंदगी तू मुझसे नाराज़ सही

मैं तुमसे हैरान नहीं

जीने की अब पड़ गई आदत

ग़म से अपनी यारी है

दर्द का होता एहसास नही

जाने क्या बीमारी है!

न उतरा हूँ न उतरूंगा

मैं सूरज हूँ मैं चमकूंगा

तुम दूर बैठ कर देखोगे

सबकी जुबां पे चढ़ जाऊँगा

आवारा बादल का टुकड़ा हूँ

न जाने कहाँ, पर बरसूँगा

मस्त हवा का झोंका हूँ

खुशबु ले कर उड़ जाऊँगा

दूर हटो ऐ दुनिया वालों

आज सुनो, बस मैं बोलूँगा

याद करोगे देर तक तुम

चालें ऐसी कुछ चल जाऊंगा

गौर से देख लो मुझको

गया, फिर हाथ न आऊंगा

उन्मादी दरिया का पानी हूँ

हर बंध तोड़ बह जाऊँगा

जुनू है ऐसा जीवन का

मौत से भी लड़ जाऊँगा

वो जो कभी मेरे दिल में रहते थे

संग-संग मेरी राहों में चलते थे

जो थे रौशनी का सुराग, मुसाफिर का हौसला

उन इरादों का सुना मैंने क़त्ल हो गया

बूँदें मोहब्बत की ...

चलो आँधी ढूँढ कर लायें
वो आँधी जो बारिश लाएगी
बड़े-बड़े बादल के काले टुकड़े
मुसलाधार बरसाएंगे मोहब्बत की बूँदें

सुना है दूर उस पहाड़ी के पीछे है वो जगह
पर इतना आसान नहीं है वहां तक पहुंचना
इस बार सबको मिलकर बड़ी कोशिश करनी होगी
चाहते गर मोहब्बत का नाम-ओ-निशाँ बचाकर रखना

जीवन को कई रंग बदलते देखा ...

जीवन क्या कठपुतलियों का एक नृत्य है
जिसकी बागडोर क्रूर समय के हाथ है?
या ये वो पाल वाली नौका है
जो हवा के थपेडों और तेज धार से संघर्षरत है?
या किस्मत इसकी भारतीय रेल के डब्बे सी है
जो अगर जलती नही तो पुल से गिरती है?
या महत्वाकांक्षाओं का भारी बक्सा है
जिसे सर पे लिए हर शख्स कहीं भाग रहा है?
या फिर ये जिम्मेदारियों का लंबा चौडा अहाता है
जहाँ क़ैद होकर इंसान मौत की राह जोहता है?

मुसाफिर तू तन्हा कहाँ है!

एक रस्ता चलता है संग मेरे
एक दरिया गुनगुनाती है संग मेरे
कुछ यादें, कुछ बातें, कुछ नज्में मेरी
कोई खुशबु, कुछ ख्वाब, कई चेहरे
गज़लों की एक पुरानी किताब भी
एक पोटली ग़म की और दूसरी फटी हुई
चलते रहने की जरुरत का एहसास भी
एक ही रस्ते पर सब चलते हैं संग मेरे
मैं तन्हा कहाँ हूँ!

थोड़ा गालिबाना हो जाएँ ....

पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन था
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ...

.... ग़ालिब के बारे में बहुत कुछ लिखा, पढ़ा और कहा गया है लेकिन मेरी पहचान इस अजीम शख्सियत से एक दूसरे उतने ही बड़ी शख्सियत ने कराई। मैं और मेरी जेनरेशन का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसके लिए ताउम्र गुलज़ार साहब का कर्ज़दार रहेगा जिन्होंने अपने टीवी सीरियल के ज़रिये हमें गालिबियत से रूबरू कराया। ये सीरियल बेहतरीन था और ग़ालिब को maases के बीच लोकप्रिय करने में बहुत कामयाब रहा। ये बात दीगर होती है लोग जिस तेरह से गालिबाना अंदाज़-ऐ-बयाँ का इस्तेमाल करते हैं रोज़मर्रा की बोलचाल की भाषा में। मुझे लगता है की ग़ालिब के अलावा कबीर ही दूसरे कवि होंगे जो आवाम में इतने या इससे थोड़े अधिक मशहूर होंगे। मीर, जिनका लोहा ग़ालिब भी मानते थे, को लोकप्रिय करने के लिए फिर एक काबिल शख्सियत को आगे आना पड़ेगा। ऐसे कुछ और नाम होंगे।

ग़ालिब, गुलज़ार फरमाते हैं कि उनके लिए एक आम पड़ोसी के जैसा था जिसे आम का बेहद शौक़ था और जो शराब से अपने लगाव को कभी किसी से छुपाता नही था। दरअसल, अपनी मुफलिसी और मुश्किलों को ग़लत करने के लिए ग़ालिब ने शराब से दोस्ती बढ़ा ली थी। अपनी इस दोस्ती को ग़ालिब ऐसे बयाँ करते हैं -
ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीटा हूँ रोज़-ऐ-अब्र -ओ- शब्-ऐ-माहताब में

मैं आज भी याद करता हूँ ग़ालिब को इक बे-खौफ शायर के रूप में जिसने जिंदगी अपने तरीके से जी जब कि हालात और ज़माना दोनों लंबे अरसे तक उनके ख़िलाफ़ रहे।
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना, कि यूँ होता तो क्या होता?

- मुक़र्रर! मुक़र्रर!

इस ब्लॉग के बारे में ....

कुछ शुरू करने से पहले थोड़ा tone set कर ली जाए। हिन्दी के कुछ blogs पढ़कर दिल में एक ख्याल आया है कि क्यों न मैं भी फिर से कुछ लिखूं और इस बार हिन्दी में। Blogging की ये कोई कोशिश मेरी पहली नही है, फर्क इतना है कि हिन्दी में नही लिखा। विषय कोई ख़ास नही है अभी फिलहाल दिमाग में। जब जो दिल में आएगा लिखेंगे - कैफियत, तबियत और फुर्सत के हिसाब से। हिन्दी और उर्दू पोएट्री एक अहम् हिस्सा होंगीं इस space का। कुछ मशहूर कवियों और शायरों और उनकी कविताओं और ग़ज़लों का बराबर ज़िक्र होता रहेगा और बीच-बीच में अपनी भी बातें होंगी। इसके अलावा थोडी बहुत philosophy और कुछ रोज़मर्रा की बातें भीं.

तुम्हें मरना होगा

वो कहते हैं मुझसे  अब तुम्हें मरना होगा  शूली पर चढ़ना होगा  खेले खूब धूम मचाया  जग से क्या कुछ न पाया  पर तुम पा न सके उसे  जिसकी तुम्हें जु...